।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, शनिवार
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?




(गत ब्लॉगसे आगेका)

इसका समाधान यह, है कि ब्राह्मणोंने कहीं भी अपने ब्राह्मणधर्मके लिये ऐसा नहीं लिखा है कि ब्राह्मण सर्वोपरि हैं, इसलिये उनको बड़े आरामसे रहना चाहिये, धन-सम्पत्तिसे युक्त होकर मौज करनी चाहिये इत्यादि, प्रत्युत ब्राह्मणोंके लिये ऐसा लिखा है कि उनको त्याग करना चाहिये, कष्ट सहना चाहिये; तपश्चर्या करनी चाहिये । गृहस्थमें रहते हुए भी उनको धन-संग्रह नहीं करना चाहिये, अन्नका संग्रह भी थोड़ा ही होना चाहिये‒कुम्भीधान्य अर्थात् एक घड़ा भरा हुआ अनाज हो, लौकिक भोगोंमें आसक्ति नहीं होनी चाहिये, और जीवन-निर्वाहके लिये किसीसे दान भी लिया जाय तो उसका काम करके अर्थात् यज्ञ, होम, जप, पाठ आदि करके ही लेना चाहिये । गोदान आदि लिया जाय तो उसका प्रायश्रित्त करना चाहिये ।

यदि कोई ब्राह्मणको श्राद्धका निमन्त्रण देना चाहे तो वह श्राद्धके पहले दिन दे, जिससे ब्राह्मण उसके पितरोंका अपनेमें आवाहन करके रात्रिमें ब्रह्मचर्य और संयमपूर्वक रह सके । दूसरे दिन वह यजमानके पितरोंका पिण्डदान, तर्पण ठीक विधि-विधानसे करवाये । उसके बाद वहाँ भोजन करे । निमन्त्रण भी एक ही यजमानका स्वीकार करे और भोजन भी एक ही घरका करे । श्राद्धका अन्न खानेके बाद गायत्री-जप आदि करके शुद्ध होना चाहिये । दान लेना, श्राद्धका भोजन करना ब्राह्मणके लिये ऊँचा दर्जा नहीं है । ब्राह्मणका ऊँचा दर्जा त्यागमें है । वे केवल यजमानके पितरोंका कल्याण करनेकी भावनासे ही श्राद्धका भोजन और दक्षिणा स्वीकार करते हैं, स्वार्थकी भावनासे नहीं; अतः यह भी उनका त्याग ही है ।

ब्राह्मणोंने अपनी जीविकाके लिये ऋत, अमृत, मृत, सत्यानृत और प्रमृत‒ये पाँच वृत्तियों बतायी हैं[1]

(१) ऋत-वृत्ति सर्वोच्च वृत्ति मानी गयी है । इसको शिलोच्छ या कपोत-वृत्ति भी कहते है । खेती करनेवाले खेतमेंसे धान काटकर ले जायँ उसके बाद वहाँ जो अन्न (ऊमी, सिट्टा आदि) पृथ्वीपर गिरा पड़ा हो, वह भूदेवों (ब्राह्मणों) का होता है; अतः उनको चुनकर अपना निर्वाह करना ‘शिलोच्छवृत्ति’ है अथवा धान्यमण्डीमें जहाँ धान्य तौला जाता है, वहाँ पृथ्वीपर गिरे हुए दाने भूदेवोंके होते हैं; अतः उनको चुनकर जीवन-निर्वाह करना कपोतवृत्ति’ है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे


[1] ऋतामृताभ्यां    जीवेत्तु  मृतेन प्रमृतेन वा ।
   सत्यानृताभ्यामपि वा न श्ववृत्या कदाचन ॥
                                            (मनुस्मृति ४ । ४)
ऋत, अमृत, मृत, प्रमृत और सत्यानृत‒इनमेंसे किसी भी वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करे; परन्तु आनवृत्ति अर्थात् सेवावृत्तिसे कभी भी जीवन-निर्वाह न करे ।’