।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, रविवार
जाति जन्मसे मानी जाय या कर्मसे ?





(गत ब्लॉगसे आगेका)
(२) बिना याचना किये और बिना इशारा किये कोई यजमान आकर देता है तो निर्वाहमात्रकी वस्तु लेना अमृत- वृत्ति’ है । इसको अयाचितवृत्ति’ भी कहते हैं ।
(३) सुबह भिक्षाके लिये गाँवमें जाना और लोगोंको वार, तिथि, मुहूर्त आदि बताकर (इस रूपमें काम करके) भिक्षामें जो कुछ मिल जाय, उसीसे अपना जीवन-निर्वाह करना मृत-वृत्ति’ है ।
(४) व्यापार करके जीवन-निर्वाह करना सत्यानृत-वृत्ति’ है ।
(५) उपर्युक्त चारों वृत्तियोंसे जीवन-निर्वाह न हो तो खेती करे पर वह भी कठोर विधि-विधानसे करे; जैसे‒एक बैलसे हल न चलाये, धूपके समय हल न चलाये आदि, यह ‘प्रमृतवृत्ति’ है ।
उपर्युक्त वृत्तियोमेंसे किसी भी वृत्तिसे निर्वाह किया जाय, उसमें पंचमहायज्ञ, अतिथि-सेवा करके यज्ञशेष भोजन करना चाहिये ।[1]
श्रीमद्भगवद्गीतापर विचार करते हैं तो ब्राह्मणके लिये पालनीय जो नौ स्वाभाविक धर्म बताये गये हैं, उनमें जीविका पैदा करनेवाला एक भी धर्म नहीं है । क्षत्रियके लिये सात स्वाभाविक धर्म बताये हैं । उनमें युद्ध करना और शासन करना‒ये दो धर्म कुछ जीविका पैदा करनेवाले हैं । वैश्यके लिये तीन धर्म बताये हैं‒खेती, गोरक्षा और व्यापार; ये तीनों ही जीविका पैदा करनेवाले हैं । शूद्रके लिये एक सेवा ही धर्म बताया है, जिसमें पैदा-ही-पैदा होता है । शूद्रके लिये खान-पान, जीवन-निर्वाह आदिमें भी बहुत छूट दी गयी है ।
भगवान्‌ने ‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः’ (गीता १८ । ४५) पदोंसे कितनी विचित्र बात बतायी है कि शम, दम आदि नौ धर्मोंके पालनसे ब्राह्मणका जो कल्याण होता है, वही कल्याण शौर्य, तेज आदि सात धर्मोंके पालनसे क्षत्रियका होता है, वही कल्याण खेती, गोरक्षा और व्यापारके पालनसे वैश्यका होता है और वही कल्याण केवल सेवा करनेसे शूद्रका हो जाता है ।
  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे


[1] ब्राह्मण और क्षत्रियके लिये यह निषेध आया है कि वह श्ववृत्ति अर्थात् सेवावृत्ति कभी न करे‒‘न श्ववृत्त्या कदाचन’ (मनु ४ । ४), ‘सेवा श्ववृत्तिराख्याता तस्मात्तां परिवर्जयेत्’ (मनु ४ । ६) । वास्तवमें सेवावृत्तिका ही निषेध किया गया है, सेवाका नहीं । माता-पिताकी तरह वे नीच-से-नीच वर्णकी नीची-से-नीची सेवा कर सकते हैं । नीच वर्णोंकी सेवा करनेमें उनकी महत्ता ही है । इसलिये वृत्तिकी ही निन्दा की गयी है । मान, बड़ाई, उपार्जन आदि स्वार्थके लिये सेवा करनेकी निन्दा है, स्वार्थका त्याग करके सेवा करनेकी निन्दा नहीं है ।