।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
श्रावण कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, रविवार
गृहस्थमें कैसे रहें ?




(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गृहस्थका धर्म तो पहले संन्यासी आदिको भोजन देनेका है और संन्यासीका धर्म गृहस्थके भोजन करनेके बाद भिक्षाके लिये जानेका है, तो दोनों बातें कैसे ?

उत्तर‒गृहस्थको चाहिये कि रसोई बन जानेपर पहले बलिवैश्वदेव कर ले, फिर अतिथि आ जाय तो उसको यथाशक्ति भोजन दे और अतिथि न आये तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक दरवाजेके बाहर खड़े होकर अतिथिकी प्रतीक्षा करे । अतिथि न आये तो उसका हिस्सा अलग रखकर भोजन कर ले ।

संन्यासी कुछ भी संग्रह नहीं करता । अतः जब उसको भूख लगे, तब वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर जाय । जब गृहस्थ भोजन कर ले और बर्तन माँजकर अलग रख ले, उस समय वह भिक्षाके लिये जाय । तात्पर्य है कि गृहस्थपर भार न पड़े, उसकी रसोई कम न पड़े । घरमें एक-दो आदमियोंकी रसोई बनी हो और भिक्षुक आ जाय तो रसोई कम पड़ेगी ! हाँ, घरमें पाँच-सात आदमियोंकी रसोई बनी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा; परन्तु उस घरपर भिक्षुक ज्यादा आ जायँ तो उनपर भी भार पड़ेगा । अतः गृहस्थके भोजन करनेके बाद ही संन्यासीको भिक्षाके लिये जाना चाहिये और जो बचा हो, वह लेना चाहिये । संन्यासीको चाहिये कि वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर ज्यादा न ठहरे । अगर गृहस्थ मना न करे तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक गृहस्थके घरपर ठहरे । अगर गृहस्थके मनमें देनेकी भावना न हो तो वहाँसे चल देना चाहिये, पर क्रोध नहीं करना चाहिये । ऐसे ही गृहस्थको भी क्रोध नहीं करना चाहिये ।

प्रश्न‒गृहस्थको अपने पड़ोसीके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

उत्तर‒पड़ोसीको अपने परिवारका ही सदस्य मानना चाहिये । यह अपना है और यह पराया है‒ऐसा भाव तुच्छ हृदयवालोंका होता है । उदार हृदयवालोंके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी ही अपना कुटुम्ब है[*] । भगवान्‌के नाते सब हमारे भाई हैं । अतः खास घरके आदमियोंकी तरह ही पड़ोसीसे बर्ताव करना चाहिये । घरमें कभी मिठाई या फल आ जायँ और सामने अपने तथा पड़ोसीके बालक हों तो मिठाई आदिका वितरण करते हुए पहले पड़ोसीके बालकोंको थोड़ा ज्यादा और बढ़िया मिठाई आदि दे । उसके बाद बहन-बेटीके बालकोंको अधिक मात्रामें और बढ़िया मिठाई आदि दे । फिर कुटुम्बके तथा ताऊ आदिके बालक हों तो उनको दे । अन्तमें बची हुई मिठाई आदि अपने बालकोंको दे । इसमें कोई शंका करे कि हमारे बालकोंको कम और साधारण चीज मिले तो हम घाटेमें ही रहे ? इसमें घाटा नहीं है । हम पड़ोसी या बहन-बेटीके बालकोंके साथ ऐसा बर्ताव करेंगे तो वे भी हमारे बालकोंके साथ ऐसा ही बर्ताव करेंगे, जिससे माप-तौल बराबर ही आयेगा । खास बात यह है कि ऐसा बर्ताव करनेसे आपसमें प्रेम बहुत बढ़ जायगा । प्रेमकी जो कीमत है, वह वस्तु-पदार्थोंकी नहीं है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[*] अयं निजः परो वेत्ति गणना लघुचेतसाम् ।
      उदारचरितानां   तु   वसुधैव  कुटुम्बकम् ॥
                                                                         (पंचतन्त्र, अपरीक्षित ३७)