।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, बुधवार
श्रीजगदीश-रथयात्रा
अपने कर्मोंके द्वारा भगवान्‌का पूजन




मनुस्मृतिमें ब्राह्मणोंके लिये छः कर्म बताये गये हैं‒स्वयं पढ़ना और दूसरोंको पढ़ाना, यं यज्ञ करना और दूसरोंसे यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरोंको दान देना[1] (इनमें पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना‒ये तीन कर्म जीविकाके हैं और पढ़ना, यज्ञ करना और दान देना‒ये तीन कर्तव्य-कर्म हैं) । उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शम-दम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खाना-पीना, उठना-बैठना आदि जितने भी कर्म हैं, उन कर्मोंके द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णोंमें व्याप्त परमात्माका पूजन करें । तात्पर्य है कि परमात्माकी आज्ञासे, उनकी प्रसन्नताके लिये ही भगवद्‌बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें ।

ऐसे ही क्षत्रियोंके लिये पाँच कर्म बताये गये हैं‒प्रजाकी रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयोंमें आसक्त न होना ।[2] इन पाँच कर्मों तथा शौर्य, तेज आदि सात स्वभावज कर्मोंके द्वारा और खाना-पीना आदि सभी कर्मोंके द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें ।

वैश्य यज्ञ करना, अध्ययन करना, दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य[3]इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मोंके द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवाके[4] द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्माका पूजन करें अर्थात् अपने शास्त्रविहित, स्वभावज और खाना-पीना, सोना-जागना आदि सभी कर्मोंके द्वारा भगवान्‌की आज्ञासे, भगवान्‌की प्रसन्नताके लिये भगवद्‌बुद्धिसे निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें ।

शास्त्रोंमें मनुष्यके लिये अपने वर्ण और आश्रमके अनुसार जो-जो कर्तव्य-कर्म बताये गये हैं, वे सब संसाररूप परमात्माकी पूजाके लिये ही हैं । अगर साधक अपने कर्मोंके द्वारा भावसे उस परमात्माका पूजन करता है तो उसकी मात्र क्रियाएँ परमात्माकी पूजा हो जाती हैं । जैसे, पितामह भीष्मने (अर्जुनके साथ युद्ध करते हुए) अर्जुनके सारथि बने हुए भगवान्‌की अपने युद्धरूप कर्मके द्वारा (बाणोंसे) पूजा की । भीष्मके बाणोंसे भगवान्‌का कवच टूट गया, जिससे भगवान्‌के शरीरमें घाव हो गये और हाथकी अंगुलियोंमें छोटे-छोटे बाण लगनेसे अंगुलियोंसे लगाम पकड़ना कठिन हो गया । ऐसी पूजा करके अन्त समयमें शरशथ्यापर पड़े हुए पितामह भीष्म अपने बाणोंद्वारा पूजित भगवान्‌का ध्यान करते हैं‒‘युद्धमें मेरे तीखे बाणोंसे जिनका कवच टूट गया है, जिनकी त्वचा विच्छिन्न हो गयी है, परिश्रमके कारण जिनके मुखपर स्वेदकण सुशोभित हो रहे हैं, घोड़ोंकी टापोंसे उड़ी हुई रज जिनकी सुन्दर अलकावलिमें लगी हुई है, इस प्रकार बाणोंसे अलंकृत भगवान् कृष्णमें मेरे मन-बुद्धि लग जायँ ।[5]

लौकिक और पारमार्थिक कर्मोंके द्वारा उस परमात्माका पूजन तो करना चाहिये, पर उन कर्मोंमें और उनको करनेके करणों-उपकरणोंमें ममता नहीं रखनी चाहिये । कारण कि जिन वस्तुओं, क्रियाओं आदिमें ममता हो जाती है वे सभी चीजें अपवित्र हो जानेसे[6] पूजा-सामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल, फूल आदि भगवान्‌पर नहीं चढ़ते) । इसलिये ‘मेरे पास जो कुछ है, वह सब उस सर्वव्यापक परमात्माका ही है, मुझे तो केवल निमित्त बनकर उनकी दी हुई शक्तिसे उनका पूजन करना है’इस भावसे जो कुछ किया जाय, वह सब-का-सब परमात्माका पूजन हो जाता है । इसके विपरीत उन क्रियाओं, वस्तुओं आदिको मनुष्य जितनी अपनी मान लेता है, उतनी ही वे (अपनी मानी हुई) क्रियाएँ वस्तुएँ (अपवित्र होनेसे) परमात्माके पूजनसे वंचित रह जाती हैं ।

(गीता १० । ४६ की व्याख्यासे)

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
‒‘कर्म-रहस्य’ पुस्तकसे


[1] अध्यापनमध्ययनं  यजन  याजनं  तथा ।
  दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥
                                                (मनु १ । ८८)
[2] प्रजानां रक्षणं  दानमिज्याध्ययनमेव च ।
   विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ॥
                                             (मनु १ । ८९)

[3] पशूनां रक्षणं     दानमिज्याध्ययनमेव च ।
    वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च ॥
                                              (मनु १ । ९०)
[4] एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् ।
   एतेषामेव वर्णानां     शुश्रूषामनसूयया ॥
                                             (मनु १ । ९१)
[5] युधि        तुरगरजोविधूम्रविष्वक्‌कचलुलितश्रमवार्यलङ्कृतास्ये ।
मम निशितशरैर्विभिद्यमानत्वचि विलसत्कवचेऽस्तु कृष्ण आत्मा ॥
                                                       (श्रीमद्भा १ । ९ । ३४)
[6] ममता मल जरि जाइ    (मानस ७ । ११७ क)