।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
गीतामें ईश्वरवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नकुछ लोग ईश्वरको मायामय मानते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि मायासे रहित एक निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही है, ईश्वर तो मायासे युक्त है । ऐसा मानना कहाँतक उचित है ?

ऊत्तर‒गीता ऐसा नहीं मानती । गीता ईश्वरको मायाका अधिपति मानती है । माया ईश्वरके वशमें रहती है । भगवान्‌ने कहा है कि मैं अपनी प्रकृतिको वशमें करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ (४ । ६) । तात्पर्य है कि जो जीव मायामें पड़े हुए हैं, उनको शिक्षा देनेके लिये ईश्वर मायाको स्वीकार करके अपनी इच्छासे अवतार लेता है । जैसे कोई अंग्रेज हिन्दी नहीं जानता तो अँग्रेजी एवं हिन्दी‒दोनों भाषाएँ जाननेवाला व्यक्ति उसको हिन्दीमें लिखी बात अँग्रेजीमें समझाता है; अतः वह समझानेवाला व्यक्ति अंग्रेजीके अधीन (आश्रित) नहीं हुआ; क्योंकि वह दूसरोंको समझानेके लिये अंग्रेजीको काममें लेता है । अपने लिये उसको अंग्रेजीकी कोई जरूरत नहीं है । ऐसे ही मायामें पड़े हुए जीवोंको शिक्षा देनेके लिये ईश्वर प्रकृतिको वशमें करके अवतार लेता है, जीवोंके सामने आता है ।

ईश्वर मायाका अधिपति (मालिक) है‒यह बात गीताने स्पष्टरूपसे और बार-बार कही है, जैसे‒ईश्वर जीवोंका मालिक होते हुए ही अवतार लेता है (४ । ६); ईश्वर गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वणोंकी रचना करता है (४ । १३); जो मनुष्य सकामभावसे देवताओंकी उपासना करते हैं, उनकी फल देनेकी व्यवस्था ईश्वर ही करता है (७ । २२); महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव प्रकृतिमें लीन होते हैं और फिर महासर्गके आदिमें ईश्वर उनकी रचना करता है (९ । ७-८); सब योनियोंमें जितने शरीर पैदा होते हैं, उसमें प्रकृति माँकी तरह है और ईश्वर पिताकी तरह है (१४ । ३-४); ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और जीवोंको उनके स्वभावके अनुसार घुमाता है (१८ । ६१) । जैसे सुनार औजारोंसे गहने बनाता है तो वह औजारोंके अधीन नहीं होता; क्योंकि वह गहनोंके लिये ही औजारोंको काममें लेता है । ऐसे ही ईश्वर संसारकी रचना करनेके लिये ही प्रकृतिको स्वीकार करता है ।

जो खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ हो, वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है ? नहीं कर सकता । जीव खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ है; अतः वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है ? परन्तु ईश्वर बन्धनसे रहित है; अतः वह बन्धनमें पड़े हुए जीवोंको (यदि वे चाहें तो) बन्धनसे, पापोंसे मुक्त कर सकता है (१८ । ६६) । मायाके बन्धनमें पड़े हुए जीवकी उपासना करनेसे उपासकको बन्धनसे मुक्ति नहीं मिलती, पर ईश्वरकी उपासना करनेसे जीव बन्धनसे मुक्त हो जाता है । तात्पर्य है कि ईश्वर जीव नहीं हो सकता और जीव ईश्वर नहीं हो सकता । हाँ, जीव अनन्यभक्तिके द्वारा ईश्वरसे अभिन्न हो सकता है, ईश्वरमें मिल सकता है, पर ईश्वर नहीं हो सकता । 

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता दर्पण’ पुस्तकसे