।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल दशमी, वि.सं.२०७३, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है
दहेज-प्रथासे हानि


(गत ब्लॉगसे आगेका)

सहज मिले सो दूध सम, माँग लिया सो पानि ।
खैंचातानी  रक्त  सम, यह  सन्तों  की  बानि ॥

अपने-आप आयी वस्तु दूधके समान होती है और माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान होती है । परन्तु जहाँ खींचातानी होती है कि हम तो इतना रुपया लेंगे तो यह दूसरेका खून पीना है ! ऐसे पैसोंसे भला नहीं होगा । अभी थोड़े दिन भले ही भला दीख जाय, पर परिणाम महान् भयंकर होगा !

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दशवर्षाणि तिष्ठति ।
प्राप्ते  चैकादशे  वर्षे  समूलं  तद्विनश्यति ॥

(अन्यायसे कमाया हुआ धन दस वर्षतक ठहरता है और ग्यारहवाँ वर्ष प्राप्त होनेपर वह मूलसहित नष्ट हो जाता है ।)

अन्यायपूर्वक जो धन इकट्ठा किया जाता है, उसकी अवधि दस वर्ष मानी गयी है । कुछ न्यायका साथ होनेसे वह कुछ वर्ष अधिक टिक सकता है, पर अवधि पूरी होनेपर वह समूल नष्ट हो जायगा । जैसे सरोवरमें नेष्टा (अधिक जलको निकालनेका मार्ग) रखते हैं तो सरोवर भरा रहता है । अगर नेष्टा न रखा जाय तो अधिक जल भर जानेके कारण वह फूट जायगा और पूरा खाली हो जायगा । ऐसे ही जो धन इकट्ठा करता है और दान-पुण्य नहीं करता, वह दरिद्री अवश्य होगा, बचा नहीं सकता कोई भी । पूर्वके पुण्य ज्यादा होनेसे कुछ दिन भले ही ठीक निकल जायँ, पर अन्तमें दुर्दशा होगी‒इसमें कोई सन्देह नहीं है ।

दूसरेका दिल दुखाना बहुत बड़ा पाप है । ‘दिल किसीका मत दुखा, दिल खुदाका नूर है !’ दिलमें भगवान्‌का निवास है; अतः किसी भी जीवका दिल दुखाना ठीक नहीं । गाय हमारी माता है । उसका हम दूध पीते हैं तो कपड़ेसे छानकर पीते हैं कि कहीं उसमें रोयाँ न आ जाय ! एक भी रोयाँ टूटता है तो गायको दुःख होता है । जो प्रसन्नतापूर्वक मिलता है, वह दूध होता है और जो अप्रसन्नतापूर्वक मिलता है, वह खून होता है । अतः माँगकर दहेज लेना बड़ा भारी पाप है ।

एक लड़का था । जब वह पढ़-लिखकर बहुत अच्छा विद्वान् बन गया, तब उसके लिये कई सम्बन्ध आने लगे । परन्तु उसने कोई सम्बन्ध स्वीकार नहीं किया । आखिर उसने अपने गोत्रवाली ऐसी लड़कीसे विवाह किया, जो अन्धी थी ! उसके मित्रोंने ऐसा करनेके लिये मना किया तो उसने कहा कि मैं तो उससे सम्बन्ध करना चाहता हूँ, जिसकी मैं सेवा कर सकूँ । मैं सेवा लेनेके लिये नहीं, प्रत्युत सेवा करनेके लिये सम्बन्ध करना चाहता हूँ । रसोई बनाना, कपड़े धोना आदि कार्य वह खुद किया करता था । उसकी सन्तान भी हुई । इस प्रकार उसका दाम्पत्य-जीवन सुखसे बीता । ऐसी बात मनुष्यमें ही हो सकती है, पशुओंमें नहीं । कुत्ते बड़े प्रेमसे खेलते हैं, पर रोटीका टुकड़ा सामने आते ही लड़ाई शुरू हो जाती है । इस तरह यदि मनुष्यमें भी ‘मैं खाऊँ ! मैं खाऊँ !’ होने लगे तो यह बहुत ही पतनकी बात है !

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒'मातृशक्तिका घोर अपमान' पुस्तकसे