।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण पूर्णिमा, वि.सं.२०७३, गुरुवार

रक्षाबन्धन, श्रावणीकर्म (यज्ञोपवितपूजन)
दहेज-प्रथासे हानि


(गत ब्लॉगसे आगेका)

चाहना दो तरहकी होती है‒(१) हमारी चीज हमारेको मिल जाय यह चाहना न्याययुक्त है; परन्तु परमात्मप्राप्तिमें यह चाहना भी बाधक है । (२) दूसरोंकी चीज हमारेको मिल जाय यह चाहना नरकोंमें ले जानेवाली है । ऐसे ही दहेज लेनेकी जो इच्छा है, वह नरकोंमें ले जानेवाली है । दहेज कम मिले, ज्यादा मिले और न भी मिले यह तो प्रारब्धपर निर्भर है, पर अन्यायपूर्वक दूसरोंका धन लेनेकी जो इच्छा है, वह घोर नरकोंमें ले जानेवाली है । मनुष्य-शरीर प्राप्त करके घोर नरकोंमें जाना कितना बड़ा नुकसान है, पतन है ! अतः मनुष्यको कम-से-कम घोर नरकोंमें ले जानेवाली इच्छाका, पराये धनकी इच्छाका तो त्याग करना ही चाहिये ।

वास्तवमें धन प्रारब्धके अनुसार ही मिलता है, इच्छामात्रसे नहीं । अगर धन इच्छामात्रसे मिलता तो कोई भी निर्धन नहीं रहता ! धनकी इच्छा कभी किसीकी पूरी हुई नहीं, होगी नहीं और हो सकती भी नहीं । उसका तो त्याग ही करना पड़ेगा । धन मिलनेवाला हो तो इच्छा न रखनेसे सुगमतापूर्वक मिलता है और इच्छा रखनेसे कठिनतापूर्वक, पाप-अन्यायपूर्वक मिलता है । गीतामें अर्जुनने पूछा कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों कर बैठता है ? तो भगवान्‌ने उत्तर दिया कि कामना ही सम्पूर्ण पापोंका मूल है ( ३ । ३६-३७) ।

पुराने जमानेमें दहेजमें बेटेके ससुरालसे आया हुआ धन बाहर ही वितरित कर दिया करते थे, अपने घरमें नहीं रखते थे और ‘दूसरोंकी कन्या दानमें ली है’‒इसके लिये प्रायश्रित्त-रूपसे यज्ञ, दान, ब्राह्मण-भोजन आदि किया करते थे । कारण कि दूसरोंकी कन्या दानमें लेना बड़ा भारी कर्जा (ऋण) है । परन्तु गृहस्थाश्रममें कन्या दानमें लेनी पड़ती है; अतः उनका यह भाव रहता था कि हमारे घर कन्या होगी तो हम भी कन्यादान करेंगे ।

जो ब्राह्मण विधि-विधानसे गाय आदिको दानमें लेते हैं, वे भी उसके लिये प्रायश्चित्त-रूपसे यज्ञ, गायत्री-जप करते हैं‒ऐसा हमने देखा है । जब दूसरोंका धन लेना भी दोष है, तो फिर दहेजमें धन लेना दोष है ही । अगर कहीं दहेज लेना भी पड़े तो केवल देनेवालेकी इच्छापूर्ति, प्रसन्नताके लिये ही लेना चाहिये । अपनी किंचिन्मात्र भी लेनेकी इच्छा नहीं हो और केवल देनेवालेकी प्रसन्नताके लिये ही थोड़ा लिया जाय, तो वह लेना भी देनेके समान ही है ।

                                   नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!  

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘मातृशक्तिका घोर अपमान पुस्तकसे