।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण दशमी, वि.सं.२०७३, शनिवार
एकादशी-व्रत कल है
गीतामें अवतारवाद


सर्वागमेषु   ये   प्रोक्ता   अवतारा   जगत्प्रभोः ।
तद्रहस्यं  हि  गीतायां  कृष्णेन  कथितं  स्वयम् ॥

अपनी स्थितिसे नीचे उतरता है, उसको ‘अवतार’ कहते हैं । जैसे, कोई शिक्षक बालकको पढ़ाता है तो वह उसकी स्थितिमें आकर पढ़ाता है अर्थात् वह स्वयं ‘क, , ग’ आदि अक्षरोंका उच्चारण करता है और उस बालकसे उनका उच्चारण करवाता है तथा उसका हाथ पकड़कर उससे उन अक्षरोंको लिखवाता है । यह बालकके सामने शिक्षकका अवतार है । गुरु भी अपने शिष्यकी स्थितिमें आकर अर्थात् शिष्य जैसे समझ सके, वैसी ही स्थितिमें आकर उसकी बुद्धिके अनुसार उसको समझाते हैं । ऐसे ही मनुष्योंको व्यवहार और परमार्थकी शिक्षा देनेके लिये भगवान् मनुष्योंकी स्थितिमें आते हैं, अवतार लेते हैं ।

भगवान् मनुष्योंकी तरह जन्म नहीं लेते । जन्म न लेनेपर भी वे जन्मकी लीला करते हैं अर्थात् मनुष्योंकी तरह माँके गर्भमें आते हैं; परन्तु मनुष्यकी तरह गर्भाधान नहीं होता । जब भगवान् श्रीकृष्ण माँ देवकीजीके गर्भमें आते हैं, तब वे पहले वसुदेवजीके मनमें आते हैं तथा नेत्रोंके द्वारा देवकीजीमें प्रवेश करते हैं और देवकीजी मनसे ही भगवान्‌को धारण करती हैं ।[1] गीतामें भगवान् कहते हैं कि मैं अज (अजन्मा) रहते हुए ही जन्म लेता हूँ अर्थात् मेरा अजपना ज्यों-का-त्यों ही रहता है । मैं अव्ययात्मा (स्वरूपसे नित्य) रहते हुए ही अन्तर्धान हो जाता हूँ अर्थात् मेरे अव्ययपनेमें कुछ भी कमी नहीं आती । मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका, सम्पूर्ण लोकोंका ईश्वर (मालिक) रहते हुए ही माता-पिताकी आज्ञाका पालन करता हूँ अर्थात् मेरे ईश्वरपनेमें, मेरे ऐश्वर्यमें कुछ भी कमी नहीं आती । मनुष्य तो अपनी प्रकृति-(स्वभाव-) के परवश होकर जन्म लेते हैं, पर मैं अपनी प्रकृतिको अपने वशमें करके स्वतन्त्रतापूर्वक स्वेच्छानुसार अवतार लेता हूँ (४ । ६) ।

भगवान् अपने अवतार लेनेका समय बताते हुए कहते हैं कि जब-जब धर्मका ह्रास होता है और अधर्म बढ़ जाता है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ, प्रकट हो जाता हूँ (४ । ७) । अपने अवतारका प्रयोजन बताते हुए भगवान् कहते हैं कि भक्तजनोंकी, उनके भावोंकी रक्षा करनेके लिये, अन्याय-अत्याचार करनेवाले दुष्टोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी भलीभाँति स्थापना, पुनरुत्थान करनेके लिये मैं युग-युगमें अवतार लेता हूँ (४ । ८) ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे



[1] ततो  जगन्मङ्गलमच्युतांशं   समाहितं शूरसुतेन   देवी ।
       दधार सर्वात्मकमात्मभूतं काष्ठा यथाऽऽनन्दकरं मनस्तः ॥
                                            (श्रीमद्भा १० । २ । १८)  

‘......यथा दीक्षाकाले गुरुः शिष्याय ध्यानमुपदिशति शिष्यश्च ध्यानोक्तां मूर्तिं हृदि निवेशयति तथा वसुदेवो देवकीदृष्टौ स्वदृष्टिं निदधौ । दृष्टिद्वारा च हरिः संक्रामन् देवकीगर्भे आविर्बभूव । एतेन रेतोरूपेणाधानं निरस्तम् ॥' (अन्वितार्थप्रकाशिका)