।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
गीतामें अवतारवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्रअवतारी भगवान्‌का शरीर कैसा होता है ?

उत्तरहमलोगोंका जन्म कर्मजन्य होता है, पर भगवान्‌का जन्म (अवतार) कर्मजन्य नहीं होता । अतः हमलोगोंके शरीर जैसे माता-पिताके रज-वीर्यसे पैदा होते हैं, वैसे भगवान्‌का शरीर पैदा नहीं होता । वे जन्मकी लीला तो हमारी तरह ही करते है, पर वास्तवमें वे उत्पत्र नहीं होते, प्रत्युत प्रकट होते हैं‒‘सम्भवाम्यात्ममायया’ (४ । ६) । हमारी आयु तो कर्मोंके अनुसार सीमित होती है, पर भगवान्‌की आयु सीमित नहीं होती । वे अपने इच्छानुसार जितने दिन प्रकट रहना चाहें, उतने दिन रह सकते हैं । हम लोगोंको तो अज्ञताके कारण कर्मफलके रूपमें आयी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका भोग करना पड़ता है, पर भगवान्‌को अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका भोग नहीं करना पड़ता, वे सुखी-दुःखी नहीं होते ।

हमलोगोंका शरीर पाञ्चभौतिक होता है, पर भगवान्‌का अवतारी शरीर पाञ्चभौतिक नहीं होता, प्रत्युत सच्चिदानन्दमय होता है‒‘सच्चित्सुखैकवपुषः पुरुषोत्तमस्य’; ‘चिदानंदमय देह तुम्हारी’ (मानस २ । १२७।३)‘सत्‌’ से भगवान्‌का अवतारी शरीर बनता है, ‘चित्’ से उनके शरीरमें प्रकाश होता है और ‘आनन्द’ से उनके शरीरमें आकर्षण होता है । वह शरीर भगवान्‌को माननेवाले, न माननेवाले आदि सभीको स्वतः प्रिय लगता है । अतः भगवान्‌का शरीर हमलोगोंके शरीरकी तरह हड्डी, मांस, रुधिर आदिका नहीं होता । परन्तु अवतारकी लीलाके समय वे अपने चिन्मय शरीरको पाञ्चभौतिक शरीरकी तरह दिखा देते हैं । भक्तोंके भावोंके अनुसार भगवान्‌को भूख भी लगती है, प्यास भी लगती है, नींद भी आती है, सरदी-गरमी भी लगती है और भय भी लगता है !

यद्यपि देवताओंके शरीर भी दिव्य कहे जाते हैं, तथापि वे भी पाञ्चभौतिक हैं । स्वर्गके देवताओंका शरीर तेजस्तत्त्वप्रधान, वायुदेवताका शरीर वायुतत्त्वप्रधान, वरुणदेवताका शरीर जलतत्त्वप्रधान और मनुष्योंका शरीर पृथ्वीतत्त्वप्रधान होता है; परन्तु भगवान्‌का शरीर इन तत्त्वोंसे रहित, चिन्मय होता है । देवताओंके शरीर दिव्य होते हुए भी नित्य नहीं हैं, मरनेवाले हैं । जो आजान देवता हैं, वे महाप्रलयके समय भगवान्‌में लीन हो जाते हैं; और जो पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप स्वर्गादि लोकोंमें जाकर देवता बनते हैं, वे पुण्यकर्म क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आकर जन्म लेते हैं और मरते हैं । [ भगवान्‌को पाप-पुण्य नहीं लगते । उनको किसीका शाप भी नहीं लगता, पर शापकी मर्यादा रखनेके लिये वे शापको स्वीकार कर लेते हैं । ]

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे