।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी, वि.सं.२०७३, बुधवार
श्राद्धादिकी अमावस्या
गीतामें अवतारवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्रयोगीकी और भगवान्‌की सर्वज्ञतामें क्या अन्तर है ? क्योंकि योगी भी सबकुछ जान लेता हैं और भगवान् भी ।

उत्तरजो साधन करके शक्ति प्राप्त करते हैं, उनकी सामर्थ्य, सर्वज्ञता सीमित होती है । वे किसी दूरके विषयको, किसीके मनकी बातको जानना चाहें तो जान सकते हैं, पर उसको जाननेके लिये उनको अपनी मनोवृत्ति लगानी पड़ती है । भगवान्‌की सामर्थ्य, सर्वज्ञता असीम है । भगवानको किसी भूत-वर्तमान-भविष्यके विषयको जाननेके लिये अपनी मनोवृत्ति नहीं लगानी पड़ती, प्रस्तुत वे उसको स्वतः-स्वाभाविक जानते हैं । उनकी सर्वज्ञता स्वतः-स्वाभाविक है ।

प्रश्रयोगी भी चाहे जितने दिनतक अपने शरीरको रख सकता है और भगवान् भी; अतः दोनोंमें अन्तर क्या हुआ ?

उत्तरयोगी प्राणायामके द्वारा अपने शरीरको बहुत दिनोंतक रख सकता है, पर ऐसा करनेमें प्राणायामकी पराधीनता रहती है । भगवान्‌को मनुष्यरूपसे प्रकट रहनेके लिये किसीके भी पराधीन नहीं होना पड़ता । वे सदा-सर्वदा स्वाधीन रहते हैं । तात्पर्य है कि योगीकी शक्ति साधनजन्य होती है; अतः वह सीमित होती है और भगवान्‌की शक्ति स्वतःसिद्ध होती है; अतः वह असीम होती है ।

प्रश्नयोगीको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः दोंनोंमें क्या अन्तर है ?

उत्तरषडैश्वर्य-सम्पन्न होनेसे; अणिमा, महिमा, गरिमा आदि सिद्धियोंसे युक्त होनेसे योगीको भी भगवान् कह देते हैं, पर वास्तवमें वह भगवान् नहीं हो जाता । कारण कि वह भगवान्‌की तरह स्वतन्त्रतापूर्वक सृष्टि-रचना आदि कार्य नहीं कर सकता । विशेष तपोबलसे वह विश्वामित्रकी तरह कुछ हदतक सृष्टि-रचना भी कर सकता है, पर उसकी वह शक्ति सीमित ही होती है और उसमें तपोबलकी पराधीनता रहती है ।

भगवत्ता दो तरहकी होती है‒साधन-साध्य और स्वतःसिद्ध । योग आदि साधनोंसे जो भगवत्ता (अलौकिक ऐश्वर्य आदि) आती है, वह सीमित होती है, असीम नहीं; क्योंकि वह पहले नहीं थी, प्रस्तुत साधन करनेसे बादमें आयी है । परन्तु भगवान्‌की भगवत्ता असीम, अनन्त होती है; क्योंकि वह किसी कारणसे भगवान्‌में नहीं आती, प्रत्युत स्वतःसिद्ध होती है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे