।। श्रीहरिः ।।



आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, गुरुवार
गृहस्थमें कैसे रहें ?




(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒गृहस्थको जीवन-निर्वाहके लिये धन कैसे कमाना चाहिये ?

उत्तर‒गृहस्थको शरीरसे परिश्रम करके और ‘दूसरेका हक न आ जाय’ ऐसी सावधानी रखकर धन कमाना चाहिये । जितना धन पैदा हो जाय, उसमेंसे दसवाँ, पन्द्रहवाँ अथवा बीसवाँ हिस्सा दान-पुण्यके लिये निकालना चाहिये । धन कमानेमें कुछ-न-कुछ दोष आ जाते हैं; अतः उन दोषोंके प्रायश्चित्तके लिये धन निकालना चाहिये ।

प्रश्न‒आजकल सरकारी कानून ऐसे हैं कि हम सच्चाईसे धन कमा नहीं सकते, अतः क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒सरकारी कानूनसे बचनेका उपाय है‒अपना खर्चा कम करना; स्वाद-शौकीनी, सजावट आदिमें खर्चा न करना; साधारण रीतिसे निर्वाह करना; बड़ी सादगीसे सात्त्विक जीवन बिताना । कारण कि धन कमाना हाथकी बात नहीं है । धन तो जितना मिलनेवाला है, उतना ही मिलेगा; पर खर्चा कम करना हाथकी बात है, इसमें हम स्वतन्त्र हैं ।

प्रश्न‒यह बात तो प्रत्यक्ष है कि हम पूरा टैक्स देते हैं तो धन चला जाता है और टैक्स पूरा नहीं देते, छिपा लेते हैं तो धन बच जाता है; अतः छिपा लेना अच्छा हुआ ?

उत्तर‒एक बार ऐसा दीखता है कि टैक्स न देनेसे धन बच गया, पर अन्तमें वह धन रहेगा नहीं[*] । बचा हुआ धन काममें भी आयेगा नहीं । परन्तु धनके लिये जो झूठ, कपट, धोखेबाजी, अन्याय आदि किये हैं, उनका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा और अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन छोड़कर मरना ही पड़ेगा । तात्पर्य है कि अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन चाहे डॉक्टरों, वकीलों आदिके पास चला जायगा, चाहे चोर-डाकू ले जायेंगे, चाहे बैंकोंमें पड़ा रहेगा, पर आपके काममें नहीं आयेगा । अतः जो धन आपके काममें नहीं आयेगा, उसके लिये पाप, अन्याय क्यों किया जाय ?

सच्चाईसे कमानेपर धन कम आयेगा, यह बात नहीं है । जो धन आनेवाला है, वह तो आयेगा ही । हाँ, किस तरह आयेगा, इसका तो पता नहीं, पर आनेवाला धन आयेगा जरूर । ऐसे कई उदाहरण देखनेमें आते हैं कि जो धनका त्याग कर देते हैं, धन लेते नहीं, उनके सामने भी धन आता है । तात्पर्य है कि जैसे घाटा, बीमारी, दुःख आदि बिना चाहे बिना उद्योग किये आते हैं, ऐसे ही जो धन, सुख आनेवाला है, वह भी बिना चाहे, बिना उद्योग किये ही आयेगा‒

सुखमैन्द्रियकं   राजन्    स्वर्गे  नरक  एव  च ।
देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुधः ॥
                                            (श्रीमद्भा ११ । ८ । १)

‘राजन् ! प्राणियोंको जैसे इच्छाके बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, ऐसे ही इन्द्रियजन्य सुख स्वर्गमें और नरकमें भी प्राप्त होते हैं । अतः बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह उन सुखोंकी इच्छा न करे ।’

  (अपूर्ण)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[*] अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दशवर्षाणि तिष्ठति ।
   प्राप्ते चैकादशे  वर्षे  समूलं  तद्विनश्यति ॥

‘अन्यायसे कमाया हुआ धन दस वर्षतक ठहरता है और ग्यारहवाँ वर्ष प्राप्त होनेपर वह मूलसहित नष्ट हो जाता है ।’