।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
श्रावण शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७३, शनिवार
गीतामें ईश्वरवाद


ज्ञातव्य
(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्रईश्वरको हम क्यों मानें ?

उत्तरईश्वर है, इसलिये मानें ।

प्रश्र‒ईश्वर है या नहीं‒इसका क्या पता ?

उत्तरसंसारमें जो भी वस्तु दीखती है, उसका कोई-न-कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ताके बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती । ऐसे ही समुद्र, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, वायु तारे आदि हमें दीखते हैं तो इनका भी कोई रचयिता जरूर होना चाहिये । इनका रचयिता हमलोगोंकी तरह कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो सकता, जो इनको बना सके । इनका निर्माता, रचयिता सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है । दूसरी बात, समुद्र अपनी मर्यादामें रहता है, चन्द्र-सूर्य नियमित समयपर उदित और अस्त होते हैं आदि-आदि, तो इनका नियमन, संचालन करनेवाला कोई होना चाहिये । इनका नियामक सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है ।

प्रश्नसमुद्र, पृथ्वी, चन्द्र आदिकी रचना और नियमन तो प्रकृति करती है । सब कुछ प्रकृतिसे ही होता है । अतः ईश्वरको ही रचयिता और नियामक क्यों मानें ?

उत्तरहम आपसे पूछते है कि प्रकृति जड़ है या चेतन अर्थात् उसमें ज्ञान है या नहीं ? अगर आप प्रकृतिको ज्ञानवाली मानते है तो हम उसीको ईश्वर कहते हैं । हमारे शास्त्रोंमें ईश्वररूपसे शक्तिका भी वर्णन है । अतः आपकी और हमारी मान्यतामें शब्दमात्रका ही भेद हुआ, तत्त्वमें कोई भेद नहीं हुआ । अगर आप मानते हैं कि प्रकृति जड़ है तो जड़ प्रकृतिके द्वारा ज्ञानपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती । प्राणियोंकी रचना करना, उनके शुभाशुभ कर्मोंका फल देना आदि क्रियाएँ जड़ प्रकृतिके द्वारा नहीं हो सकतीं; क्योंकि ज्ञानपूर्वक क्रियाके बिना संसारके जीवोंकी व्यवस्था नहीं हो सकती । जड़ प्रकृतिमें परिवर्तन जरूर होता है, पर उसमें ज्ञानपूर्वक क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है । इसलिये 'ईश्वर है’‒ऐंसा हमें मानना ही पड़ेगा ।


एक पक्ष कहता है कि ईश्वर नहीं है और दूसरा पक्ष कहता है कि ईश्वर है । अगर ‘ईश्वर नहीं है’‒यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको न माननेवाले और ईश्वरको माननेवाले‒दोनों बराबर ही रहेंगे अर्थात् ईश्वरको माननेवालेकी कोई हानि नहीं होगी । परन्तु ‘ईश्वर है’‒यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको माननेवालेको तो ईश्वरकी प्राप्ति हो जायगी, पर ईश्वरको न माननेवाला सर्वथा रीता रह जायगा । अतः ‘ईश्वर है’‒यह मानना ही सबके लिये ठीक है । परन्तु केवल ईश्वरको माननेमें ही सन्तोष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उसको तो प्राप्त ही कर लेना चाहिये; क्योंकि ईश्वरको प्राप्त करनेकी सामर्थ्य मनुष्यमात्रमें है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता दर्पण’ पुस्तकसे