।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद अमावस्या, वि.सं.२०७३, गुरुवार
कुशोत्पाटिनी अमावस्या
गीतामें अवतारवाद


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्नवेदव्यासजी आदि कारकपुरुषोंको भी भगवान् कहते हैं और अवतारी ईश्वरको भी भगवान् कहते हैं; अतः दोंनोंमें क्या अन्तर है ?

उत्तरवेदव्यासजी आदि कारकपुरुष भगवान्‌के कलावतार, अंशावतार कहलाते हैं । वे भगवान्‌की इच्छासे ही यहाँ अवतार लेते हैं । अवतार लेकर वे धर्मकी स्थापना और साधु पुरुषोंकी रक्षा तो करते हैं, पर दुष्टोंका विनाश नहीं करते । कारण कि दुष्टोंके विनाशका काम भगवान्‌का ही है, कारकपुरुषोंका नहीं ।

आजकल अपनेमें कुछ विशेषता देखकर लोग अपनेको भगवान् सिद्ध करने लगते हैं और नामके साथ ‘भगवान’ शब्द लगाने लगते हैं‒यह कोरा पाखण्ड ही है । अपनेको भगवान् कहकर वे अपनेको पुजवाना चाहते हैं, अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये लोगोंको ठगना चाहते हैं । मनुष्योंको ऐसे नकली भगवानोंके‌ चक्करमें पड़कर अपना पतन नहीं करना चाहिये, प्रत्युत ऐसे भगवानोंसे सदा दूर ही रहना चाहिये ।

किसी सम्प्रदायको माननेवाले मनुष्य अपनी श्रद्धा-भक्तिसे सम्प्रदायके मूल पुरुष-(आचार्य-) को भी अवतारी भगवान् कह देते है; पर वास्तवमें वे भगवान् नहीं होते । वे आचार्य मनुष्योंको भगवान्‌की तरफ लगाते हैं, उन्मार्गसे बचाकर सन्मार्गमें लगाते हैं, इसलिये वे उस सम्प्रदायके लिये भगवान्‌से भी अधिक पूजनीय हो सकते हैं [*], पर भगवान् नहीं हो सकते ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे
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भगवान् हृदयमें ही नहीं, प्रत्युत दीखनेवाले समस्त संसारके कण-कणमें विद्यमान हैं । ऐसे सर्वत्र विद्यमान परमात्माको जब हम सच्चे हृदयसे देखना चाहेंगे, तभी वे दीखेंगे । यदि हम संसारको देखना चाहेंगे तो भगवान् बीचमें नहीं आयेंगे, संसार ही दीखेगा । हम संसारको देखना नहीं चाहते, उससे हमें कुछ भी नहीं लेना है, न उसमें राग करना है न द्वेष, हमें तो केवल भगवान्‌से प्रयोजन है‒

इस भावसे हम एक भगवान्‌से ही घनिष्ठता कर लें । भगवान् हमारी बात सुनें या न सुनें, मानें या न मानें, हमें अपना लें या ठुकरा दें‒इसकी कोई परवाह न करते हुए हम भगवान्‌से अपना अटूट सम्बन्ध (जो कि नित्य है) जोड़ लें[†] । जैसे माता पार्वतीने कहा था‒

जन्म कोटि लगि रगर हमारी ।
बरउँ संभु न  त रहउँ कुआरी ॥
तजउँ  न  नारद  कर उपदेसू ।
आपु कहहिं सत  बार  महेसू ॥
                                 (मानस, बाल ८१ । ३)

पार्वतीके मनमें यह भाव था कि शिवजीमें ऐसी शक्ति ही नहीं है कि वे मुझे स्वीकार न करें । इसी प्रकार हम सबका सम्बन्ध भगवान्‌के साथ है । हम भगवान्‌से विमुख भले ही हो जायँ, पर भगवान् हमसे विमुख कभी हुए नहीं, हो सकते नहीं । हमारा त्याग करनेकी उनमें शक्ति नहीं है ।

(‒‘लक्ष्य अब दूर नहीं’ पुस्तकसे)


[*] मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥
  राम सिंधु घन  सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि  संत   समीरा ॥  
                                        (रामचरितमानस ७ । १२० । ८-९)

[†] वास्तवमें भगवान्‌के साथ हमारा सदासे ही अटूट सम्बन्ध है । परन्तु भगवान्‌से विमुख हो जानेके कारण हमें उस सम्बन्धका अनुभव नहीं होता ।