।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७३, रविवार
द्वितीया श्राद्ध
गृहस्थोंके लिये


(गत ब्लॉगसे आगेका)

अगर सरकार जनसंख्यापर नियन्त्रण रखना ही चाहती है तो उसको ‘जन्म’ पर नियन्त्रण रखनेके साथ-साथ ‘मृत्यु’ पर भी नियन्त्रण रखना चाहिये । अगर वह मृत्युपर नियन्त्रण नहीं रख सकती तो उसको जन्मपर भी नियन्त्रण रखनेका अधिकार नहीं है ! मनुष्य पैदा होने तो कम हो जायँ, पर मृत्यु पहलेकी तरह अपना काम करती रहे तो क्या परिणाम होगा ? युद्ध, अकाल, बाढ़, भूकम्प, महामारी आदि कारणोंसे जितने मनुष्योंकी मृत्यु होती है, उसकी कोई सीमा नहीं है । अतः परिवार-नियोजनके द्वारा सरकार जनसंख्याकी सीमा निश्चित नहीं कर सकती कि अमुक सीमातक जनसंख्या कम कर दी जाय और फिर उस सीमासे उसको कम न होने दिया जाय; अगर कम हो जाय तो तत्काल उसकी पूर्ति कर दी जाय ! तात्पर्य है कि जनसंख्याकी व्यवस्था भगवान्‌के हाथमें है । उसकी ओरसे अरबों वर्षोंसे ठीक व्यवस्था चलती आयी है । मनुष्योंको इस विषयमें हस्तक्षेप करनेका अधिकार नहीं है । इस विषयमें हस्तक्षेप करनेवाले देश इसका दुष्परिणाम भुगत चुके हैं ।

संतति-निरोध नास्तिकवाद-रूपी विषवृक्षकी उपज है । जो मनुष्य नास्तिक आलसी-प्रमादी और भोगी हैं, उन लोगोंने ही संतति-निरोध-कार्यक्रमका आरम्भ किया है, वे ही लोग संतति-निरोधके समर्थनमें दी गयी दलीलोंसे प्रभावित होते हैं और वे ही लोग इसका दुष्परिणाम भी भोगेंगे !

परिवार-नियोजन-कार्यक्रमके दुष्परिणाम

इंग्लैण्ड, अमेरिका, जर्मनी, फ्राँस आदिमें पिछले सौ वर्षोंके भीतर जो तीव्रगतिसे परिवार-नियोजन-कार्यक्रम अपनाया गया, उसके परिणामोंका विश्लेषण करते हुए अमेरिकाके जनसंख्या-विशेषज्ञ प्रो वारेन थम्पसनने लिखा है कि ‘जिस समाजने सन्तति-निरोधको अपनाया है, उस समाजमें शारीरिक योग्यतावाले लोगोंकी संख्या तो बढ़ रही है, पर बौद्धिक कुशलतावाले विचारशील लोगोंकी संख्या घट रही है ।’ अन्य विदेशी विद्वान् अल्डुस हक्सले, बर्ट्रेण्ड रसेल आदिने भी यही बात कही है कि ‘परिवार-नियोजन-कार्यक्रमके परिणामस्वरूप लोगोंका स्वास्थ्य और बौद्धिक स्तर गिर रहा है और अल्पबुद्धिवाले एवं अकुशल लोगोंकी संख्या बढ रही है ।’ कारण यह है कि विवाहके बाद आरम्भमें स्त्रीका पुरुषके प्रति और पुरुषका स्त्रीके प्रति विशेष आकर्षण रहता है, जिससे उनमें प्रबल भोगेच्छा रहती है । इसलिये आरम्भमें जो सन्तान होती है, वह केवल भोगेच्छासे ही पैदा होती है । भोगेच्छासे पैदा हुई सन्तान प्रायः अच्छी नहीं होती और बादमें होनेवाली सन्तानकी अपेक्षा अल्पबुद्धिवाली, विवेकहीन, भोगी होती है । इसलिये गीतामें आया है कि भोगेच्छारहित योगियोंके कुलमें ही श्रेष्ठ बुद्धिवाले योगभ्रष्ट साधकोंका जन्म होता है‒‘योगिनामेव कुले भवति धीमताम्’ (६ । ४२)

 (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे