।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
अष्टमी श्राद्ध, जीवत्पुत्रिका-व्रत
गृहस्थोंके लिये


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जिस समय स्त्री और पुरुष सन्तानोत्पत्तिके योग्य होते हैं, वही समय उनके यौवनका होता है और जिस समय वे सन्तानोत्पत्तिके अयोग्य होते हैं, वही समय उनके बुढ़ापेका होता है । तात्पर्य है कि सन्तान पैदा करनेकी शक्ति न रहनेसे मनुष्यकी शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ शिथिल हो जाती हैं । स्त्रीका शरीर तो मुख्यरूपसे सन्तानोत्पत्तिके लिये ही निर्मित हुआ है । युवावस्था आते ही उसका मासिक धर्म आरम्भ हो जाता है, जो हर महीने उसको गर्भवती होनेके योग्य बनाता रहता है । गर्भवती होनेके बाद उसके शरीरकी अधिकतम शक्ति बच्चेके पालन-पोषणमें लग जाती है । इसलिये बच्चेका पालन-पोषण जितना स्त्री कर सकती है, उतना पुरुष नहीं कर सकता । अगर स्त्री मर जाय तो पुरुष बच्चोंको सास, नानी या बहन आदिके पास भेज देता है । परन्तु पति मर जाय तो स्त्री स्वयं कष्ट उठाकर भी बच्चोंका पालन कर लेती है, उनको पढ़ा-लिखाकर तैयार कर देती है । कारण कि स्त्री मातृशक्ति है, उसमें पालन करनेकी विलक्षण योग्यता, स्रेह, कार्यक्षमता है । इसलिये कहा है‒‘मात्रा समं नास्ति शरीरपोषणम्’ अर्थात् माताके समान शरीरका पालन-पोषण करनेवाला दूसरा कोई नहीं है । माताके रूपमें स्त्रीको पुरुषकी अपेक्षा भी विशेष अधिकार दिया गया है‒‘सहस्रं तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु २ । १४५) अर्थात् माताका दर्जा पितासे हजार गुना अधिक माना गया है । वर्तमानमें गर्भ-परीक्षण किया जाता है और गर्भमें कन्या हो तो गर्भ गिरा दिया जाता है । क्या यह मातृशक्तिका घोर अपमान नहीं है ? क्या यह स्त्रीको समान अधिकार देना है ? सन्तति-निरोधके द्वारा स्त्रीको केवल भोग्या बना दिया गया है । भोग्या स्त्री तो वेश्या होती है । क्या यह स्त्री-जातिका घोर अपमान नहीं है ?

नोबेल पुरस्कारप्राप्त डॉ एलेक्सिज कारेलने लिखा है कि ‘सन्तानोत्पत्ति स्त्रीका कर्तव्य है और इस कर्तव्यका पालन करना स्त्रीकी पूर्णताके लिये अनिवार्य है’ (मैन, दि अननौन) । इसी तरह यौन-मनोविज्ञानके विशेषज्ञ डॉ ऑस्वाल्ड श्वार्जने लिखा है कि ‘काम-वासनाका सम्बन्ध सन्तानोत्पत्तिसे है । स्त्रीके शरीरकी रचना मुख्यरूपसे गर्भधारण तथा सन्तान पैदा करनेके लिये ही हुई है । इसलिये अगर उसको सन्तानोत्पत्ति करनेसे रोका जायगा तो इसका उसके शरीर और मनपर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिससे उसका व्यक्तित्व पराजय, अभाव तथा नीरसतासे युक्त हो जायगा’ (दि साइकोलॉजी आफ सेक्स) । जो पुरुष स्त्रीसंग तो करता है, पर गर्भाधान नहीं करता, वह उस मूर्ख किसानकी तरह है, जो हल तो चलाता है पर बीज नहीं डालता अथवा उस मूर्ख आदमीकी तरह है, जो केवल जीभके स्वादके लिये भोजन चबाता है, पर उसको गलेसे उतारनेके बदले बाहर थूक देता है ! 

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे