।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
द्वादशी श्राद्ध
गीतामें भगवन्नाम


(गत ब्लॉगसे आगेका)
ज्ञातव्य

सुषुप्ति-(गाढ़ निद्रा-) के समय सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें, बुद्धि अहम्‌में और अहम् अविद्यामें लीन हो जाता है अर्थात् सुषुप्तिमें अहंभावका भान नहीं होता । गाढ़ निद्रासे जगनेपर ही सबसे पहले अहंभावका भान होता है, फिर देश, काल, अवस्था आदिका भान होता है। परन्तु गाढ़ निद्रामें सोये हुए व्यक्तिके नामसे कोई आवाज देता है तो वह जग जाता है अर्थात् अविद्यामें लीन हुए, गाढ़ निद्रामें सोये हुए व्यक्तितक शब्द पहुँच जाता है । तात्पर्य है कि शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है, जिससे वह अविद्याको भेदकर अहम्‌‌तक पहुँच जाता है । जैसे, अनादिकालसे अविद्यामें पड़े हुए, मूर्च्छित व्यक्तिकी तरह संसारमें मोहित हुए मनुष्यको गुरुमुखसे श्रवण करनेपर अपने स्वरूपका बोध हो जाता है अर्थात् अविद्यामें पड़े हुए मनुष्यको भी शब्द तत्त्वज्ञान करा देता है[1] । ऐसे ही जो तत्परतासे भगवन्नामका जप करता है, उसको वह नाम स्वरूपका बोध, भगवान्‌के दर्शन करा देता है ।

तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषके मुखसे निकले जो शब्द (उपदेश) होते हैं, उनको कोई आदरपूर्वक सुनता है तो उसके आचरण, भाव सुधर जाते हैं और अज्ञान मिटकर बोध हो जाता है । परन्तु जिसकी वाणीमें असत्य, कटुता, वृथा बकवाद, निन्दा, परचर्चा आदि दोष होते हैं, उसके शब्दोंका दूसरोंपर असर नहीं होता; क्योंकि उसके आचरणोंके कारण शब्दकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है । ऐसे ही स्वयं वक्तामें भी भ्रम, प्रमाद, लिप्सा और करणापाटव‒ये चार दोष होते हैं । वक्ता जिस विषयका विवेचन करता है, उसको वह ठीक तरहसे नहीं जानता अर्थात् कुछ जानता है और कुछ नहीं जानता‒यह भ्रमहै । वह उपदेश देते हुए सावधानी नहीं रखता, बेपरवाह होकर कहता है और श्रोता किस दर्जेका है, कहाँतक समझ सकता है आदि बातोंको उपेक्षाके कारण नहीं जानता‒यह प्रमाद’ है । किसी तरहसे मेरी पूजा हो, आदर हो, श्रोताओंसे रुपये-पैसे मिल जायँ, मेरा स्वार्थ सिद्ध हो जाय, सुननेवाले किसी तरहसे मेरे चक्करमें आ जायँ, मेरे अनुकूल बन जाये आदिकी इच्छा रखता है‒यह ‘लिप्सा’ है । कहनेकी शैलीमें कुशलता नहीं है, वक्ता श्रोताकी भाषाको नहीं जानता, श्रोता किस तरह बातको समझ सकता है‒वह युक्ति उसको नहीं आती‒यह करणापाटवहै । ये चार दोष वक्तामें रहनेसे वक्ताके शब्दोंसे श्रोताको ज्ञान नहीं होता । इन दोषोंसे रहित शब्द श्रोताको ज्ञान करा देते है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गीता-दर्पण ’ पुस्तकसे


[1] शब्दमें ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वह जो इन्द्रियोंके सामने नहीं है. उस परोक्षका भी ज्ञान करा देता है ।