।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, शनिवार
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है‒

अनुचित उचित बिचारू तजि जे पालहिं पितु बैन ।
ते भाजन सुख  सुजस  के  बसहिं  अमरपति  ऐन ॥

तात्पर्य है कि पुत्रको श्रीरामकी तरह अपना आचरण बनाना चाहिये और यह सोचना चाहिये कि इस परिस्थितिमें, इस अवस्थामें, इस समय मेरी जगह श्रीराम होते तो क्या करते । इस तरह उनका ध्यान करके काम करना चाहिये ।

पुत्र माता-पिताकी कितनी ही सेवा करे तो भी वह माता-पिताके ऋणको चुका नहीं सकता । कारण कि जिस मनुष्य-शरीरसे अपना कल्याण हो सकता है, जीवन्मुक्ति मिल सकती है, भगवत्प्रेम प्राप्त हो सकता है, भगवान्‌का मुकुटमणि बन जाय‒इतना ऊँचा पद प्राप्त हो सकता है, वह मनुष्य-शरीर हमें माता-पिताने दिया है । उसका बदला पुत्र कैसे चुका सकता है ? नहीं चुका सकता ।

प्रश्न‒माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य क्या है ?

उत्तर‒माता-पिताकी सेवाका तात्पर्य कृतज्ञतामें है । माता-पिताने बच्चेके लिये जो कष्ट सहे हैं उसका पुत्रपर ऋण है । उस ऋणको पुत्र कभी उतार नहीं सकता । माँने पुत्रकी जितनी सेवा की है, उतनी सेवा पुत्र कर ही नहीं सकता । अगर कोई पुत्र यह कहता है कि मैं अपनी चमड़ीसे माँके लिये जूती बना दूँ तो उससे हम पूछते हैं कि यह चमड़ी तुम कहाँसे लाये ? यह भी तो माँने ही दी है ! उसी चमड़ीकी जूती बनाकर माँको दे दी तो कौन-सा बड़ा काम किया ? केवल देनेका अभिमान ही किया है ! ऐसे ही शरीर खास पिताका अंश है । पिताके उद्योगसे ही पुत्र पढ़-लिखकर योग्य बनता है, उसको रोटी-कपड़ा मिलता है । इसका बदला कैसे चुकाया जा सकता है ! अतः केवल माता-पिताकी सेवा करनेसे, उनकी प्रसन्नता लेनेसे वह ऋण अदा तो नहीं होता, पर माफ हो जाता है ।

प्रश्न‒मेरा ऐसा पुत्र हो जाय, उसका कल्याण हो जाय‒इस उद्देश्यसे माँ-बापने थोड़े ही संग किया ! उन्होंने तो अपने सुखके लिये संग किया । हम पैदा हो गये तो हमारेपर उनका ऋण कैसे ?

उत्तर‒केवल सुखासक्तिसे संग करनेवाले स्त्री-पुरुषके प्रायः श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न नहीं होते । जो स्त्री-पुरुष शास्त्रके आज्ञानुसार केवल पितृ-ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही सन्तान उत्पन्न करते हैं, अपने सुखका उद्देश्य नहीं रखते, वे ही असली माता-पिता हैं । परन्तु पुत्रके लिये तो कैसे हों, किसी भी तरहके माता-पिता हों, वे पूज्य ही हैं; क्योंकि उन्होंने मानव-शरीर देकर पुत्रको परमात्मप्राप्तिका अधिकारी बना दिया ! उपनिषदोंमें आता है कि विद्यार्थी जब विद्या पढ़कर, स्नातक होकर गृहस्थमें प्रवेश करनेके लिये गुरुजीसे आज्ञा लेता, तब गुरुजी उसको आज्ञा देते कि ‘मातृदेवो भव, पितृदेवो भव’ अर्थात् तुम माता-पिताको साक्षात् ईश्वररूप मानकर उनकी आज्ञाका पालन करो; उनकी सेवा करो । यह ऋषियोंकी दीक्षान्त शिक्षा है और इसके पालनमें ही हमारा कल्याण है । अतः पुत्रको जिनसे शरीर मिला है, उनका कृतज्ञ होना ही चाहिये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे