।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
ऋषिपंचमी
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जन्म और आयुके होनेमें तथा अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिके बननेमें कर्म निमित्त कारण हैं और किस कर्मका कब, कहाँ क्या फल होगा; कैसी परिस्थिति बनेगी’इस तरह कर्मफलकी व्यवस्था करनेमें, कर्मफल देनेमें भगवत्कृपा निमित्त कारण है अर्थात् यह सब भगवदिच्छासे, भगवान्‌के विधानसे ही होता है; क्योंकि कर्म जड होनेसे स्वयं कर्मफल नहीं दे सकते । अगर कर्मफलका विधान जीवोंके हाथमें होता तो वे शुभ कर्मका ही फल लेते, अशुभ कर्मका फल लेते ही क्यों ? जैसे संसारमें यह देखा जाता है कि मनुष्य शुभ कर्मका फल स्वयं स्वीकार करता है और अशुभ कर्म (चोरी, डकैती आदि) का फल (दण्ड) स्वयं स्वीकार नहीं करता तो उसको राजकीय व्यवस्थासे दण्ड दिया जाता है ।

माँ बच्चेके लिये कितना कष्ट उठाती है, उसको गर्भमें धारण करती है, जन्म देते समय असह्य पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है, बड़े लाड़-प्यारसे पालन-पोषण करती है, खाना-पीना, उठना-बैठना, चलना-फिरना आदि सिखाती है, ऐसी माँका ऋण पुत्र नहीं चुका सकता । अतः पुत्रको माँके प्रति कृतज्ञ होना ही चाहिये । ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्रके भरण-पोषणका पूरा प्रबन्ध करता है, विद्या पढ़ाकर योग्य बनाता है, जीविका चलानेकी विद्या सिखाता है, विवाह कराता है, ऐसे पिताका ऋण थोड़े ही चुकाया जा सकता है ! अतः माता-पिताका कृतज्ञ होकर जीते-जी उनकी आज्ञाका पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको प्रसन्न रखना और मरनेके बाद उनको पिण्ड-पानी देना, श्राद्ध-तर्पण करना आदि पुत्रका खास कर्तव्य है ।

प्रश्न‒माता-पिताने बचपनमें ही बच्चोंको अच्छी शिक्षा नहीं दी; अतः पुत्र माता-पिताकी सेवा नहीं करते तो इसमें पुत्रोंका क्या दोष ?

उत्तर‒माता-पिताके द्वारा अच्छी शिक्षा नहीं दी गयी तो उसके दोषी माता-पिता हुए; क्योंकि उन्होंने अपने कर्तव्यका पालन नहीं किया । परन्तु माता-पिताके दोष देखना पुत्रका कर्तव्य नहीं है । उसको तो अपना कर्तव्य देखना चाहिये । दूसरोंका कर्तव्य देखनेसे मनुष्य अपने कर्तव्यसे पतित हो जाता है । दूसरोंका कर्तव्य देखना ही भयंकर दोष है । गीताने भी अपने-आपसे अपना उद्धार करनेकी, अपना सुधार करनेकी बात कही हैं[*]; क्योंकि अच्छी शिक्षा मिलनेपर भी धारण तो खुद ही करेगा । अच्छी शिक्षा मिलनेपर भी बालक उसको धारण न करे, बिगड़ जाय तो यह दोष स्वयं बालकका ही है । अतः अपना उद्धार और पतन मुख्यतासे अपनेपर ही लागू होता है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[*] उद्धरेदात्मनात्मानं     नात्मानमवसादयेत् ।
       आत्मैव ह्यात्मनो बन्यूरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
                                                                                   (गीता ६ । ५)

अपने द्वारा अपना उद्धार करे, अपना पतन न करे; क्योंकि आप ही अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है ।’