।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७३, बुधवार
लोलार्क-षष्ठीव्रत
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒अगर माता-पिता पुत्रके साथ कठोरताका बर्ताव करें, पक्षपात करें तो उस पुत्रको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒उस पुत्रको माँ-बापका कर्तव्य नहीं देखना चाहिये । उसको तो अपना ही कर्तव्य देखना चाहिये और माँ-बापकी उत्साहपूर्वक विशेषतासे सेवा करनी चाहिये । रामचरितमानसमें तो हरेकके लिये कहा गया है‒मंद करत जो करइ भलाई ॥’ (५ । ४१ । ७) ।

अगर माता-पिता पुत्रका आदर करते हैं तो आदरमें पुत्रकी सेवा खर्च हो जाती है, बिक जाती है । परन्तु वे आदर न करके पुत्रका निरादर करते हैं तो पुत्रकी सेवा पूरी रह जाती है, खर्च नहीं होती । वे कष्ट देते हैं तो उससे पुत्रकी शुद्धि होती है, सहनशीलता बढ़ती है, तप बढ़ता है, महत्त्व बढता है । अतः माता-पिताके दिये हुए कष्टको परम तप समझकर प्रसन्नतासे सहना चाहिये और यह समझना चाहिये कि मेरेपर माँ-बापकी बड़ी कृपा है, जिससे मेरी सेवाका किंचिन्मात्र भी व्यय न होकर मेरेको शुद्ध सेवा, शुद्ध तपश्चर्याका लाभ मिल रहा है ! ऐसा अवसर तो किसी भाग्यशालीको ही मिलता है और मेरा यह अहोभाग्य है कि माता-पिता मेरी सेवा स्वीकार कर रहे हैं !’ अगर वे सेवा स्वीकार न भी करें तो भी पुत्रका काम तो उनकी सेवा करना ही है । सेवामें कोई कमी, त्रुटि मालूम दे तो उसको तत्काल सुधार देना चाहिये और सेवामें ही तत्पर रहना चाहिये ।

जो पुत्र धन, जमीन, मकान आदि पानेकी आशासे माँ-बापकी सेवा करता है, वह वास्तवमें धन आदिकी ही सेवा करता है, माँ-बापकी नहीं । पुत्रको तो केवल सेवाका ही सम्बन्ध रखना चाहिये । उसको माता-पितासे यही कहना चाहिये कि आपके पास जो धन-सम्पत्ति हो वह चाहे मेरे भाईको दे दो, चाहे बहनको दे दो, जिसको आप चाहो, उसको दे दो, पर सेवा मेरेसे लो । माता-पिता हमारेसे सेवा ले लें‒इसीमें उनकी कृपा माने ।

प्रश्न‒माता-पिता अनुचित, निषिद्ध कर्म करनेकी आज्ञा दें तो पुत्रको क्या करना चाहिये ?

उत्तर‒अनुचित आज्ञा दो तरहकी होती है‒(१) अमुकको मार दो’ आदि दूसरोंका अनिष्ट करनेकी आज्ञा देना और (२) तुम घर छोड़कर वनमें जाओ’ आदि आज्ञा देना । इनमेंसे दूसरी आज्ञाका तो पालन करना चाहिये, पर पहली आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये । उसमें पिताकी सामर्थ्य देखनी चाहिये । अगर पिता समर्थ हो तो उस आज्ञाका पालन करनेमें कोई हर्ज नहीं है । जैसे, जमदग्निने अपने पुत्र परशुरामजीसे कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है और तुम्हारे भाई मेरी आज्ञाका पालन नहीं करते; अतः इनको मार डालो, तो परशुरामजीने उनका गला काट डाला । जमदग्निने प्रसन्न होकर कहा कि तुम वरदान माँगो । परशुरामजीने कहा कि माँ और भाइयोंको जीवित कर दो और उनको मेरे द्वारा मारे जानेकी बात याद न रहे । जमदग्निने तथास्तु’ कहा और सब जीवित हो गये ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे