।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

अगर पिता समर्थ नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है तो पुत्रको उस आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये । कारण कि अगर पुत्र उस अनुचित आज्ञाका पालन करेगा तो पिताको नरक होगा । जिस आज्ञाके पालनसे पिताको नरक हो, दुःख पाना पड़े, ऐसी आज्ञाका पालन नहीं करना चाहिये । मैं भले ही नरकमें चला जाऊँ, पर पिता नरकमें न जाय‒ऐसा भाव होनेसे न पुत्रको नरक होगा और न पिताको । तात्पर्य है कि पिताको नरकसे बचानेके लिये उनकी आज्ञा भंग कर दे, पर अनुचित काम कभी न करे ।

अगर पिता समर्थ नहीं है और वह अनुचित आज्ञा देता है, पर पुत्रने उम्रभर माता-पिताकी किसी भी आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया है तो पुत्र उस अनुचित आज्ञाके पालनमें जल्दबाजी न करे, उसपर विचार करे और भगवान्‌को याद करे । जैसे, गौतमने अपने पुत्र चिरकारीसे कहा कि तुम्हारी माँ व्यभिचारिणी है, इसको मार डालो; और ऐसा कहकर वे वनमें चले गये । चिरकारीने तलवार निकाली और पिताकी आज्ञापर विचार करने लगा । वहाँ गौतमके मनमें विचार आया कि उसको क्यों मारें, उसका त्याग भी तो कर सकते हैं । ऐसा विचार करके वे लौटकर आये तो उन्होंने देखा कि चिरकारी हाथमें तलवार लिये खड़ा है; अतः उन्होंने चिरकारीको मना कर दिया कि माँको मत मारो ।

प्रश्न‒गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है‒

जाके प्रिय न राम-बैदेही ।
तजिये   ताहि  कोटि  बैरी  सम,  जद्यपि  परम   सनेही ॥
तज्यो पिता  प्रह्लाद,   बिभीषन  बंधु,  भरत  महतारी ।
बलि गुरु तज्यो, कंत ब्रज-बनितन्हि, भये क्त-मंगलकारी ॥

‒प्रह्लादने पिताका, विभीषणने भाईका, भरतने माँका, बलिने गुरुका और गोपियोंने पतिका त्याग कर दिया, तो क्या उनको दोष नहीं लगा ?

उत्तर‒यहाँ यह बात ध्यान देनेकी है कि उन्होंने पिता आदिका त्याग किस विषयमें, किस अंशमें किया ? हिरण्यकशिपु प्रह्लादजीको बहुत कष्ट देता था, पर प्रह्लादजी उसको प्रसन्नतापूर्वक सहते थे । वे इस बातको मानते थे कि यह शरीर पिताका है; अतः वे इस शरीरको चाहे जैसा रखें, इसपर उनका पूरा अधिकार है । इसीलिये उन्होंने पिताजीसे कभी यह नहीं कहा कि आप मेरेको कष्ट क्यों दे रहे हैं ? परन्तु मैं (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश हूँ; अतः मैं भगवान्‌की सेवामें, भजनमें लगा हूँ । पिताजी इसमें बाधा देते हैं, मुझे रोकते हैं‒यह उचित नहीं है । इसलिये प्रह्लादजीने पिताजीकी उस आज्ञाका त्याग किया, जिससे उनको नरक न हो जाय । अगर वे पिताजीकी आज्ञा मानकर भगवद्भक्तिका त्याग कर देते तो इसका दण्ड पिताजीको भोगना पड़ता । पुत्रके द्वारा ऐसा कोई भी काम नहीं होना चाहिये, जिससे पिताको दण्ड भोगना पड़े । इसी दृष्टिसे उन्होंने पिताकी आज्ञा न मानकर पिताका हित ही किया, पिताका त्याग नहीं किया ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे