।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
श्रीराधाष्टमी, महर्षि दधीचि-जयन्ती
सन्तानका कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

रावणने विभीषणको लात मारी और कहा कि तुम यहाँसे चले जाओ तो विभीषणजी रामजीके पास चले गये । अतः विभीषणने भाईका त्याग नहीं किया । प्रत्युत उसके अन्यायका त्याग किया; अन्यायका समर्थन, अनुमोदन नहीं किया । विभीषणने रावणको उसके हितकी बात ही कही और उसका हित ही किया ।

माँने रामजीको वनमें भेज दिया, दुःख दिया‒इस विषयमें ही भरतने माँका त्याग किया है । भरतका कहना था कि जैसे कौसल्या अम्बा मेरेपर रामजीसे भी अधिक स्नेह करती हैं, ऐसे ही तेरेको भी रामजीपर मेरेसे भी अधिक स्नेह करना चाहिये था; परन्तु रामजीको तूने वनमें भेज दिया ! जब तू रामजीकी भी माँ नहीं रही, तो फिर मेरी माँ कैसे रहेगी ? इस विषयमें तेरेको दण्ड देना मेरे लिये उचित नहीं है । मैं तो यह कर सकता हूँ कि तेरेको माँ’ नहीं कहूँ, और मैं क्या करूँ !

बलिने गुरुका इस अंशमें त्याग किया कि साक्षात् भगवान् ब्राह्मणवेशमें आकर मेरेसे याचना कर रहे हैं, पर गुरुजी मेरेको दान देनेसे रोक रहे हैं; अतः मैं गुरुकी बात नहीं मानूँगा । गुरुकी बातका त्याग भी बलिने गुरुके हितके लिये ही किया । बलि दान देनेके लिये तैयार ही थे । अगर उस समय वे गुरुकी बात मानते तो उसका दोष गुरुको ही लगता । अतः उन्होंने गुरुका शाप स्वीकार कर लिया और उस दोषसे, अहितसे गुरुको बचा लिया । स्वयं दण्ड भोग लिया, पर गुरुको दण्डसे बचा लिया तो यह गुरु-सेवा ही हुई !

पति भगवान्‌के सम्मुख होनेके लिये रोक रहे थे‒इसी विषयमें गोपियोंने पतियोंका त्याग किया । अगर वे पतिकी बात मानतीं तो पति पापके भागी होते; अतः पतिकी बात न मानकर उन्होंने पतियोंको पापसे ही बचाया । तात्पर्य है कि मनुष्य-शरीरकी सार्थकता परमात्माको प्राप्त करनेमें ही है । अतः उसमें सहायक होनेवाला हमारा हित करता है और उसमें बाधा देनेवाला हमारा अहित करता है । प्रह्लाद आदि सभीने परमात्मप्राप्तिमें बाधा देनेवालेका ही त्याग किया है, पिता आदिका नहीं । इसीलिये उनका मंगल-ही-मंगल हुआ ।

प्रश्न‒माताका दर्जा ऊँचा है या पिताका ? और ऊँचा होनेमें क्या कारण है ?

उत्तर‒ऊँचा दर्जा माँका ही है । माँका दर्जा पितासे सौ गुणा अधिक बताया गया है‒‘सहस्र तु पितॄन्माता गौरवेणातिरिच्यते’ (मनु २ । १४५) । रामजी जब वनवासके लिये जाने लगे, तब वे माँके पास गये और माँके चरणोंमें पड़कर कहा कि माँ ! मुझे वनवासकी आज्ञा हुई है ।’ माँने कहा कि अगर केवल पिताकी ऐसी आज्ञा है तो फिर माँको बड़ी समझकर तुम वनमें मत जाओ‒

जौ  केवल  पितु  आयसु   ताता ।
तौ जनि जाहु जानि बड़ि माता ॥
                               (मानस, अयोध्या ५६ । १)

हाँ, अगर तुम्हारी छोटी माँ और पिताने वनमें जानेके लिये कह दिया है तो[*] वन तुम्हारे लिये सौ अयोध्याके समान है‒

जौ पितु मातु कहेउ बन जाना ।
सौ कानन सत  अवध समाना ॥
                              (मानस, अयोध्या ५६ । २)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[*] कौसल्या अम्बाने अपनेसे भी अधिक छोटी माँ (विमाता)-का आदर करनेकी जो बात कही है, यह उनका उदारभाव । कौसल्याने सबको यह शिक्षा दी है कि माँसे भी विमाताका अधिक आदर करना चाहिये, जिससे परिवारमें परस्पर प्रेम बना रहे ।