।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आश्विन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७३, रविवार
श्रीदुर्गाष्टमी-व्रत
महापापसे बचो




(गत ब्लॉगसे आगेका)

यह प्रत्यक्ष बात है कि जो मालिक अच्छे नौकरोंका तिरस्कार करता है, उसको फिर अच्छे नौकर नहीं मिलेंगे; और जो नौकर अच्छे मालिकका तिरस्कार करता है उसको फिर अच्छा मालिक नहीं मिलेगा । अच्छे सन्त-महात्माओंका संग पाकर जो अपना उद्धार नहीं करता, उसको फिर वैसा संग नहीं मिलेगा । जिनसे लाभ हुआ है ऐसे अच्छे सन्तोंका जो त्याग करता है, उनकी निन्दा, तिरस्कार करता है, उसको फिर वैसे सन्त नहीं मिलेंगे । जैसे माता-पिता प्रसन्न होकर बालकको मिठाई देते हैं, पर बालक उस मिठाईको न खाकर गन्दी नालीमें फेंक देता है तो फिर माता-पिता उसको मिठाई नहीं देते । ऐसे ही भगवान् विशेष कृपा करके मनुष्य-शरीर देते हैं, पर मनुष्य उस शरीरसे पाप करता है, उस शरीरका दुरुपयोग करता है तो फिर उसको मनुष्य-शरीर नहीं मिलेगा । माता-पिता तो फिर भी बालकको मिठाई दे देते हैं; क्योंकि बालक नासमझ होता है, पर जो समझपूर्वक, जानकर पाप करता है, उसको भगवान् फिर मनुष्य-शरीर नहीं देंगे । इसी तरह जो गर्भपात करते हैं, उनकी फिर अगले जन्मोंमें सन्तान नहीं होगी ।

ब्रह्मवैवर्तपुराण (प्रकृतिखण्ड, अध्याय २) में आता है कि सृष्टिके आरम्भमें भगवान् श्रीकृष्णकी चिन्मयी शक्ति मूल प्रकृति (श्रीराधा) ने अपने गर्भको ब्रह्माण्ड-गोलकके अथाह जलमें फेंक दिया । यह देखकर भगवान्‌ने उसको शाप दे दिया कि ‘आजसे तेरी कोई सन्तान नहीं होगी । इतना ही नहीं, तेरे अंशसे जो-जो दिव्य स्त्रियों उत्पन्न होंगी, उनकी भी कोई सन्तान नहीं होगी’[1] ! इसके बाद मूल प्रकृति-देवीकी जीभके अग्रभागसे सरस्वती प्रकट हुई । फिर कुछ समय बीतनेपर वह मूल प्रकृति दो रूपोंमें प्रकट हो गयी । आधे बायें अंगसे वह ‘लक्ष्मी’ और आधे दायें अंगसे वह ‘राधा’ हो गयी । भगवान् श्रीकृष्ण भी उस समय दो रूपोंमें प्रकट हो गये । आधे बायें अंगसे वे ‘चतुर्भुज विष्णु’ और आधे दायें अंगसे वे ‘द्विभुज कृष्ण’ हो गये[2] । तब भगवान् श्रीकृष्णने लक्ष्मी और सरस्वती‒दोनों देवियोंको विष्णुकी सेवामें उपस्थित होनेकी आज्ञा दी ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे


[1] दृष्ट्रवा  डिम्बञ्च  सा देवी हृदयेन विभूषिता ।
  उत्ससर्ज  च  कोपेन  ब्रह्माण्ड  गोलके  जले ॥
  दृष्ट्वा कृष्णश्च तत्त्यागं  हाहाकारं चकार ह ।
  शशाप  देवीं  देवेशस्तत्थणं  च  यथोचितम् ॥
  यतोऽपत्यं  त्वया  त्यक्तं  कोपशीले सुनिष्ठुरे ।
  भवत्वमनपत्यापि     चाद्यप्रभृतिनिश्चितम् ॥
  या यास्त्वदंशरूपा च भविष्यन्ति सुरस्त्रियः ।
  अनपत्याश्च ताः सर्वास्तत्समा नित्ययौवनाः ॥
                                                    (प्रकृति २ । ५०‒५३)

[2] अथ  कालान्तरे  सा  च   द्विधारूपा  बभूव  ह ।
   वामार्द्धाङ्गा च कमला दक्षिणार्द्धा च राधिका ॥
   एतस्मिन्नन्तरे    कृष्णो    द्विधारूपो  बभूव  ह ।
   दक्षिणार्द्धश्च   द्विभुजो    वामार्द्धश्च   चतुर्भुजः ॥
                                                   (प्रकृति २ । ५६-५७)