।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल द्वितीया, वि.सं.२०७३, मंगलवार
यमद्वितीया, भैयादूज
स्त्री-सम्बन्धी बातें


(गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है या नहीं ?

उत्तर‒अगर पहली स्त्रीसे सन्तान न हुई हो तो पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये, केवल सन्तान-उत्पत्तिके लिये पुरुष शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार दूसरा विवाह कर सकता है । अपने सुखभोगके लिये वह दूसरा विवाह नहीं कर सकता; क्योंकि यह मनुष्य-शरीर अपने सुख-भोगके लिये है ही नहीं ।

पुनर्विवाह अपनी पूर्वपत्नीकी आज्ञासे, सम्मतिसे ही करना चाहिये और पत्नीको भी चाहिये कि वह पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये पुनर्विवाहकी आज्ञा दे दे । पुनर्विवाह करनेपर भी पतिको अपनी पूर्वपत्नीका अधिकार सुरक्षित रखना चाहिये; उसका तिरस्कार, निरादर कभी नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उसको बड़ी मानकर दोनोंको उसका सम्मान करना चाहिये ।

जिसकी सन्तान तो हो गयी, पर स्त्री मर गयी, उसको पुनर्विवाह करनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि वह पितृऋणसे मुक्त हो गया । परन्तु जिसकी भोगासक्ति नहीं मिटी है, वह पुनर्विवाह कर सकता है; क्योंकि अगर वह पुनर्विवाह नहीं करेगा तो वह व्यभिचारमें प्रवृत्त हो जायगा, वेश्यागामी हो जायगा, जिससे उसको भयंकर पाप लगेगा । अंतः इस पापसे बचनेके लिये और मर्यादामें रहनेके लिये उसको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार पुनर्विवाह कर लेना चाहिये ।

प्रश्न‒पहले राजालोग अनेक विवाह करते थे तो क्या ऐसा करना उचित था ?

उत्तर‒जो राजालोग अपने सुखभोगके लिये अधिक विवाह करते थे, वे आदर्श नहीं माने गये हैं । केवल राजा होनेमात्रसे कोई आदर्श नहीं हो जाता । जो शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार चलते थे, धर्मका पालन करते थे, वे ही राजालोग आदर्श माने गये हैं ।

वास्तवमें विवाह करना कोई ऊँचे दर्जेकी चीज नहीं है और आवश्यक भी नहीं है । आवश्यक तो परमात्मप्राप्ति करना है । इसीके लिये मनुष्य-शरीर मिला है, विवाह करनेके लिये नहीं । स्त्री-पुरुषका संग तो देवतासे लेकर भूत-प्रेत आदितक स्थावर-जंगम हरेक योनिमें होता है; अतः यह कोई महत्ताकी बात नहीं है । परन्तु परमात्मप्राप्तिका अवसर, अधिकार, योग्यता आदि तो मनुष्यजन्ममें ही है । मनुष्य परमात्मप्राप्तिका जन्मजात अधिकारी है । जो विचारके द्वारा अपनी विषयासक्तिको, भोगासक्तिको नहीं छोड़ पाते, ऐसे कमजोर मनुष्योंके लिये ही विवाहका विधान किया गया है । भोगोंको भोगकर उनसे विरक्त होनेके लिये, उनमें अरुचि करनेके लिये ही गृहस्थाश्रममें प्रवेश करना चाहिये । जो विषयासक्तिको नहीं छोड़ पाते, उनपर ही पितृऋण रहता है अर्थात् उपकुर्वाण ब्रह्मचारीपर ही वंश-परम्परा चलानेका दायित्व रहता है, नैष्ठिक ब्रह्मचारी और भगवान्‌के भक्तपर नहीं । तात्पर्य है कि पितृऋण उसी पुरुषपर रहता है, जो भोगासक्ति नहीं मिटा सका । जिसमें भोगासक्ति नहीं है, उसपर कोई ऋण रहता ही नहीं, चाहे वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी आदि कोई भी क्यों न हो ! कारण कि इन्कमपर ही टैक्स लगता है, मालपर ही जगात लगती है । जिसके पास इन्कम है ही नहीं, उसपर टैक्स किस बातका ? माल है ही नहीं तो जगात किस बातकी ?

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे