।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल एकादशी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
प्रबोधिनी एकादशी-व्रत (स्मार्त)
वैष्णव एकादशी-व्रत कल है
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

श्रोता‒आपने कहा कि सफाई देना सत्यका निरादर है, यह ठीक समझमें नहीं आया ।

स्वामीजी‒कोई पूछे तो सत्य बात कह दे । बिना पूछे लोगोंमें कहनेकी जरूरत नहीं । बिना पूछे सफाई देना सत्यका निरादर है । हम पाप नहीं करते किसीको दुःख नहीं देते, फिर भी हमारी निन्दा होती है तो उसमें दुःख नहीं होना चाहिये, प्रत्युत प्रसन्नता होनी चाहिये । भगवान्‌की तरफसे जो होता है, सब मंगलमय ही होता है । इसलिये मनके विरुद्ध बात हो जाय तो उसमें आनन्द मनाना चाहिये ।
☀☀☀☀☀

श्रोता‒रामायण आया है‒संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि’ (उत्तर ४५) तो क्या शंकरके भजनके बिना हम भगवान्‌की भक्ति नहीं पा सकते ?

स्वामीजी‒इसमें एक मार्मिक बात है कि आपसमें खटपट, मतभेद नहीं होना चाहिये । पहले शैवों और वैष्णवोंमें आपसमें बड़ी खटपट थी । उसको गोस्वामीजी महाराजने दूर किया । उन्होंने शंकर और विष्णुको एक बताया और दोनोंको एक-दूसरेका उपासक बताया । शंकरजीके लिये कहा‒सेवक स्वामि सखा सिय पी के’ (मानस, बाल १५ । २) अर्थात् शंकरजी रामजीके सेवक भी हैं, स्वामी भी हैं और मित्र भी हैं । जैसे, शंकरजीने हनुमानजीका रूप धारण करके रामजीकी सेवा की । लंकापर चढ़ाई करनेसे पहले रामजीने शंकरजीका पूजन किया । तात्पर्य है कि शैवों और वैष्णवोंके बीच मतभेदको लेकर आपसमें खटपट बिकुल नहीं होनी चाहिये ।

वैष्णवलोग शिवजीके मन्दिरमें नहीं जाते तो इसमें एक छिपी हुई बात है । वैष्णवलोग मस्तकपर जो तिलक करते हैं, उसमें तीन रेखाएँ होती हैं‒दोनों तरफकी रेखाएँ भगवान्‌के चरणोंका चिह्न और दोनोंके बीचकी लाल रेखा लक्ष्मीजीका चिह्न है । इस तिलकको लगाकर शंकरके सामने नहीं जाते; क्योंकि भगवान् शंकर नग्नवेशमें हैं, फिर लक्ष्मीजीका चिह्न लगाकर उनके सामने कैसे जायँ ? परन्तु इसका तात्पर्य खटपट नहीं होना चाहिये । किसीसे भी वैर रखना नरकोंमें ले जानेवाला है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

संकरप्रिय मम द्रोही   सिव  द्रोही  मम  दास ।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ॥
                                                  (मानस, लंका २)

वास्तवमें भगवान् विष्णु और शंकर एक हैं । सत्त्वगुणका रंग सफेद, रजोगुणका रंग लाल और तमोगुणका रंग काला है । सृष्टिकर्ता (रजोगुणी) ब्रह्माजीका रंग तो लाल है, पर विष्णुका काला और शंकरका सफेद रंग है, जबकि पालनकर्ता सत्त्वगुणी विष्णुका सफेद और संहारकर्ता (तमोगुणी) शंकरका काला रंग होना चाहिये । कारण यह है कि शंकरका ध्यान करनेसे विष्णु काले हो गये और विष्णुका ध्यान करनेसे शंकर सफेद हो गये ! विष्णुके भक्त जो तिलक करते हैं, वह शंकरके त्रिशूलके समान है, और शंकरके भक्त जो तिलक करते हैं, वह विष्णुके धनुषके समान है ।

आपके घरोंमें भी आपसमें खटपट नहीं होनी चाहिये । आपसमें प्रेम होना चाहिये । उपासना भले ही अलग-अलग हो, पर आपसमें वैर नहीं होना चाहिये । आपसका वैर विनाश करनेवाला होता है । किसीसे वैर करोगे तो फिर वासुदेवः सर्वम्’ (सब संसार भगवत्सरूप है) का अनुभव कैसे करोगे ? घरमें साथ-साथ रहो तो प्रेमके लिये और मतभेद होनेपर अलग-अलग हो जाओ तो प्रेमके लिये । आपसका प्रेम परमात्माकी तरफ ले जानेवाला होता है । आपसमें खटपट रखते हो तो आपने सत्संग क्या किया ? यह तो कुसंग है । कोई किसी भी इष्टको माने, पर आपसमें प्रेम होना चाहिये । हमारे सत्संगमें सभी सम्प्रदायोंके लोग आते हैं, मुसलमान भी आते हैं । सुजानगढ़में मुसलमान लोग मुझे अपने घर भी ले गये थे । सत्संग करनेसे कई मुसलमानोंने शराब और मांसका सेवन करना छोड़ दिया । इसलिये आप सबके साथ प्रेम रखो, सबका हित चाहो । प्रेम ऐसी चीज है, जो जड़तामें भी चेतनता ले आती है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे