।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, वि.सं.२०७३, बुधवार
गीतामें फलसहित विविध उपासनाओंका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

(४) पितरोंके भक्त पितरोंका पूजन करते हैं और इसके फलस्वरूप वे पितरोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् पितृलोकमें चले जाते हैं‒‘पितॄन्यान्ति पितृव्रताः’ (९ । २५) । (परंतु यदि वे निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर पितरोंका पूजन करते हैं, तो वे मुक्त हो जाते हैं ।)

(५) राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं (१७ ।४) और फलस्वरूप यक्ष-राक्षसोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं[*]

(६) तामस पुरुष भूत-प्रेतोंका पूजन करते हैं (१७ । ४) । भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं  अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं‒भूतानि यान्ति भूतेज्याः’ (१ । २५)[†]

गीतामें निष्कामभावसे मनुष्य, देवता, पितर यक्ष-राक्षस आदिकी सेवा पूजन करनेका निषेध नहीं किया गया है, प्रस्तुत निष्कामभावसे सबकी सेवा एवं हित करनेकी बड़ी महिमा गायी गयी है (५ । २५; ६ । ३२; १२ । ४) । तात्पर्य है कि निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे केवल देवताओंकी पुष्टिके लिये, उनकी उन्नतिके लिये ही कर्तव्य-कर्म, पूजा आदि की जाय,  तो उससे मनुष्य बँधता नहीं, प्रत्युत परमात्माको प्राप्त हो जाता है (३ । ११) । ऐसे ही निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे कर्तव्य समझकर पितरोंकी तृप्तिके लिये श्राद्ध-तर्पण किया जाय, तो उससे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिके उद्धारके लिये, उन्हें सुख-शान्ति देनेके लिये निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे उनके नामसे गया-श्राद्ध करना, भागवत-सप्ताह करना, दान करना, भगवन्नामका जप-कीर्तन करना,  गीता-रामायण आदिका पाठ करना आदि-आदि किये जायँ, तो उनका उद्धार हो जाता है, उनको सुख-शान्ति मिलती है और साधकको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है । उन देवता, पितर यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिको अपना इष्ट मानकर सकाम भावपूर्वक उनकी उपासना करना ही खास बन्धनका कारण है; जन्म-मरणका, अधोगतिका कारण है ।

मनुष्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत, पशु-पक्षी आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें हमारे प्रभु ही हैं, इन प्राणियोंके रूपमें हमारे प्रभु ही हैं‒ऐसा समझकर (भगवद्बुद्धिसे) निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवाकी जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है ।

उपर्युक्त दोनों बातोंका तात्पर्य यह हुआ कि अपनेमें सकामभाव होना और जिसकी सेवा की जाय, उसमें भगवद्बुद्धिका  न होना ही जन्म-मरणका कारण है । अगर अपनेमें निष्कामभाव हो और जिसकी सेवा की जाय, उसमें भगवद्बुद्धि (भगवद्भाव) हो तो वह सेवा परमात्मप्राप्ति करानेवाली ही होगी ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे



[*] गीतामें भगवान्‌ने यक्ष-राक्षसोंके पूजनका तो वर्णन कर दिया‒‘यक्षरक्षांसि राजसाः’ (१७ । ४), पर उनके पूजनके फलका वर्णन नहीं किया । अतः यहाँ ऐसा समझाना चाहिये कि जैसे देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको ही प्राप्त होते हैं (९ । २५), ऐसे ही यक्ष-राक्षसोंका पूजन करनेवाले यक्ष-राक्षसोंको ही प्राप्त होते हैं । कारण कि यक्ष-राक्षस भी देवयोनि होनेसे देवताओंके ही अन्तर्गत आते हैं ।

[†] सत्रहवें अध्यायके चौदह श्लोकमें ‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्’ पदसे जो देवता, ब्राह्मण, गुरुजन और ज्ञानीके पूजनकी बात कही गयी है, उसे यहाँ उपासनाके अन्तर्गत नहीं लिया गया है । कारण कि वहाँ ‘शारीरिक तप’ (केवल शरीर-सम्बन्धी पूजन, आदर-सत्कार आदि) का प्रसंग है, जो कि परम्परासे मुक्त होनेमें हेतु है । दूसरी बात, उन देवता, ब्राह्मण आदिका पूजन केवल शास्त्रकी आज्ञा मानकर कर्तव्यरूपसे करते हैं, उनको इष्ट मानकर नहीं करते ।