।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७३, गुरुवार
गीतामें फलसहित विविध उपासनाओंका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

एक विलक्षण बात है कि अगर भगवान्‌की उपासनामें सकामभाव रह भी जाय, तो भी वह उपासना उद्धार करनेवाली ही होती है, पर भगवान्‌में अनन्यभाव होना चाहिये । भगवान्‌ने गीतामें अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी‒इन चारों भक्तोंको उदार कहा है (७ । १८); और मेरा पूजन करनेवाले मेरेको ही प्राप्त होते हैं‒ऐसा कहा है (७ । २३; ९ । २५) । मनुष्य किसी भी भावसे भगवान्‌में लग जाय तो उसका उद्धार होगा ही ।

देवता आदिकी उपासनाका फल तो अन्तवाला (नाशवान्‌) होता है (७ । २३); क्योंकि देवताओंके उपासक पुण्यके बलपर स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और पुण्यके समाप्त होनेपर फिर लौटकर आते हैं । परंतु परमात्माकी प्राप्ति अन्तवाली नहीं होती (८ । १६); क्योंकि यह जीव परमात्माका अंश है (१५ । ७) । अतः जब यह जीव अपने अंशी परमात्माकी कृपासे उनको प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह वहाँसे लौटता नहीं (८ । २१; १५ । ६) । कारण कि परमात्माकी कृपा नित्य है और स्वर्गादि लोकोंमें जानेवालोंके पुण्य अनित्य हैं ।

ज्ञातव्य

प्रश्र‒भगवान्‌ने कहा है कि भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवाले भूत-प्रेत[*] ही बनते हैं (९ । २५); ऐसा क्यों ?

उत्तर‒भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवालोंके अन्तःकरणमें भूत-प्रेतोंका ही महत्त्व होता है और भूत-प्रेत ही उनके इष्ट होते हैं; अतः अन्तकालमें उनको प्रेतोंका ही चिन्तन होता है और चिन्तनके अनुसार वे भूत-प्रेत बन जाते हैं (८ । ६) ।

अगर कोई मनुष्य यह सोचे कि अभी तो मैं पाप कर लूँ, व्यभिचार, अत्याचार कर लूँ फिर जब मरने लगूँगा, तब भगवान्‌का नाम ले लूँगा, भगवान्‌को याद कर लूँगा, तो उसका यह सोचना सर्वथा गलत है । कारण कि मनुष्य जीवनभर जैसा कर्म करता है, मनमें जैसा चिन्तन करता है, अन्तकालमें प्रायः वही सामने आता है । अतः दुराचारी मनुष्यको अन्तकालमें अपने दुराचारोंका ही चिन्तन होगा और वह अपने पाप-कर्मोंके फलस्वरूप नीच योनियोंमें ही जायगा, भूत-प्रेत ही बनेगा ।

अगर कोई मनुष्य काशी, मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या आदि धामोंमें रहकर यह सोचता है कि धाममें रहनेसे, मरनेपर मेरी सद्‌गति होगी ही, दुर्गति तो हो नहीं सकती; और ऐसा सोचकर वह पाप, दुराचार, व्यभिचार, झूठ-कपट, चोरी-डकैती आदि कर्मोंमें लग जाता है, तो मरनेपर उसकी भयंकर दुर्गति होगी । वह अन्तिम समयमें प्रायः किसी कारणसे धामके बाहर चला जायगा और वहीं मरकर भूत-प्रेत बन जायगा । अगर वह धाममें भी मर जाय, तो भी अपने पापोंके कारण वह भूत-प्रेत बन जायगा ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे



[*] जो यहाँसे चला जाता है, मर जाता है, उसको प्रेतकहते हैं और उसके पीछे जो मृतक-कर्म किये जाते है, उनको शास्रीय परिभाषामें ‘प्रेतकर्मकहते हैं । जो पाप-कर्मोंके फलस्वरूप भूत, पिशाचकी योनिमें चले जाते हैं, उनकी भी प्रेतकहा जाता है; अतः यहाँ पापोंके कारण नीच योनियोंमें गये हुएका वाचक ही प्रेतशब्द आया है ।