।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, सोमवार

श्रीकालभैरवाष्टमी
गीतामें फलसहित विविध उपासनाओंका वर्णन



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जैसे मनुष्योमें जो अधिक पापी होते है, दुर्गुणी-दुराचारी होते है, हिंसात्मक कार्य करनेवाले होते हैं, वे भगवान्‌की कथा, कीर्तन, सत्संग आदिमें ठहर नहीं सकते, वहाँसे उठ जाते हैं, ऐसे ही भयंकर पापोंके कारण जो भूत-प्रेतकी नीच योनियोंमें जाते हैं, वे भगवन्नाम-जप, कथा-कीर्तन, सत्संग आदिके नजदीक नहीं आ सकते । जो लोग भगवन्नाम कथा-कीर्तन, सत्संग आदिका विरोध करते हैं, निन्दा-तिरस्कार करते हैं, वे भी भूत-प्रेत बननेपर कथा-कीर्तन, सत्संग आदिके नजदीक नहीं आ सकते अगर वे कथा-कीर्तन आदिके नजदीक आ जायँ तो उनके शरीरमें दाह होने लगता है ।

अगर पुजारियोंके मनमें सांसारिक वस्तुओंका महत्व न हो, प्रत्युत ठाकुरजीका महत्त्व हो, ठाकुरजीके अर्पित चीजोंमें प्रसादकी भावना हो, भगवान्‌की वस्तु प्रसादरूपसे मिलनेपर वे गद्‌गद हो जाते हो और अपनेको बड़ा भाग्यशाली मानते हों कि हमें भगवान्‌की चीज मिल गयी, प्रसाद मिल गया‒इस तरह वस्तुओंमें भगवान्‌के सम्बन्धका महत्त्व हो, तो भगवान्‌के अर्पित वस्तुओंको स्वीकार करनेपर भी उनको दोष, भगवदपराध नहीं लगता । अन्तःकरणमें भगवान्‌का महत्त्व होनेके कारण वे कभी भूत-प्रेत बन ही नहीं सकते । परन्तु जिनके अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व है, वस्तुओंकी कामना, ममता, वासना है, वे तीर्थस्थानमें, मन्दिरमें रहनेपर भी मरनेके बाद वासना आदिके कारण भूत-प्रेत हो जाते हैं । उन्होंने क्रियारूपसे भगवान्‌की पूजा, आरती आदि की है, इस कारण वे उस तीर्थ-स्थानमें ही रहते हैं । इस प्रकार उनको भगवदपराधका फल (भूत-प्रेतयोनि) भी मिल जाता है और भगवत्सम्बन्धी क्रियाओंका फल (तीर्थ-स्थानमें निवास) भी मिल जाता है ।

प्रश्र‒जो भगवन्नामका जप, स्वाध्याय आदि करते हैं, वे भी मरनेके बाद क्या भूत-प्रेत बन सकते हैं ?

उत्तर‒प्रायः ऐसे मनुष्य भूत-प्रेत नहीं बनते । परन्तु नामजपमें रुचिकी अपेक्षा जिनकी सांसारिक पदार्थोंमें, अपनी सेवा करनेवालोंमें, अपने अनुकूल चलनेवालोंमें ज्यादा रुचि (आसक्ति) हो जाती है और अन्तसमयमें साधनमें स्थिति न रहकर सांसारिक पदार्थोंकी, सेवा करनेवालोंकी याद आ जाती है, वे मरनेके बाद भूत-प्रेत बन सकते हैं । ऐसे भूत-प्रेत किसीको तंग नहीं करते, किसीकी दुःख नहीं देते ।

 कर्मोंकी गति बड़ी ही गहन है‒गहना कर्मणो गतिः’ (४ । १७) । अतः पाप-पुण्य, भाव आदिमें तारतम्य रहनेसे भूत-प्रेत आदिकी योनि मिल जाती है । भगवान्‌ने स्वयं कहा है कि कर्म और अकर्म क्या है‒इस विषयमें बड़े-बड़े विद्वान्‌ लोग भी मोहित हो जाते है  (४ । १६) ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)

‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे