।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
उत्पन्ना एकादशी-व्रत
घोर पापोंसे बचो




अशुद्ध प्रकृतिवाले संसारी मनुष्योंको संसारमें ही सुख दीखता है । संसारके सुखसे बढ़कर भी कोई पारमार्थिक सुख है‒इस बातको वे बिलकुल भी नहीं जानते । ऐसे आसुरी स्वभाववाले मनुष्य सांसारिक भोगोंको लेकर कहते हैं कि जो कुछ है, बस, इतना ही है‒‘कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्रिताः’ (गीता १६ । ११), ‘नान्यदस्तीति वादिनः’ (गीता २ । ४२) । परन्तु शुद्ध प्रकृतिवाले पारमार्थिक साधकोंको परमात्मामें ही सुख दीखता है और उस सुखसे बढ़कर भी कोई सुख है‒ऐसा उनके माननेमें ही नहीं आता‒‘यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिक ततः’ (गीता ६ । २२)

संसारी मनुष्य और साधक‒दोनोंमें फर्क यह है कि संसारी मनुष्य पारमार्थिक सुखको जानते ही नहीं, जबकि साधक पारमार्थिक सुखके साथ-साथ सांसारिक सुखको भी जानते हैं । जैसे, बालक केवल बालकपनेको ही देखता है, जवानी तथा बुढ़ापेका उसको अनुभव नहीं है । बालकसे भी जवान ज्यादा जानता है; क्योंकि उसने बालकपनेका भी अनुभव किया है और जवानीका भी । इसलिये बालक उसको ठगना चाहे तो वह उसकी ठगाईमें नहीं आता । जवानसे भी बूढ़ा ज्यादा जानता है, क्योंकि उसने बालकपना, जवानी और बुढ़ापा‒तीनोंका अनुभव किया है । मनुष्य जिस विषयको नहीं जानता, उस विषयमें वह बालक कहलाता है[*] । कारण कि बालक नाम अनजान (बेसमझ) का है और अनजान होनेसे ही उसको शिक्षा दी जाती है । इस दृष्टिसे संसारमें रचे-पचे लोग बालक हैं । उनसे साधक ज्यादा जानता है और साधकसे भी सिद्ध, तत्त्वज्ञ महात्मा ज्यादा जानता है । तत्वज्ञ महात्मा ही वास्तवमें पूर्ण जानकार होता है[†]; क्योंकि पहले वह साधारण मनुष्योंमें रहा, फिर उसने अनेक ग्रन्थोंका अध्ययन किया, सत्संग किया, साधन किया और फिर तत्त्वका अनुभव किया । इस प्रकार वह आरम्भसे अन्ततक सबको पूरा जानता है । वह संसारको भी पूरा जानता है और परमात्मतत्वको भी[‡]

   शेष आगेके ब्लॉगमें
‒‘देशकी वर्तमान दशा तथा उसका परिणाम’ पुस्तकसे




[*] सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः । (गीता ५ । ४)

‘बालक अर्थात् बेसमझ लोग सांख्ययोग और कर्मयोगको अलग-अलग फलवाले कहते हैं, न कि पण्डितजन ।’
[†] भगवान्‌ने तत्त्वज्ञ महात्माको सर्ववित्’ (सर्वज्ञ) कहा है‒

यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स  सर्वविद्भजति मां  सर्वभावेन  भारत ॥  (गीता १५ । १९)

‘हे भरतवंशी अर्जुन ! इस प्रकार जो मोहरहित मनुष्य मुझे पुरुषोत्तम जानता है, वह सर्वज्ञ सब प्रकारसे मेरा ही भजन करता है ।’

[‡] या निशा  सर्वभूतानां  तस्यां  जागर्ति  संयमी ।
   यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ (गीता २ । ६९)

‘सम्पूर्ण मनुष्योंकी जो रात (परमात्मासे विमुखता) है, उसमें संयमी मनुष्य जागता है, और जिसमें साधारण मनुष्य जागते हैं (भोगोंमें लगे रहते हैं), वह तत्त्वको जाननेवाले मुनिकी दृष्टिमें रात है ।’