।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
कार्तिक शुक्ल चतुर्थी, वि.सं.२०७३, गुरुवार
स्त्री-सम्बन्धी बातें


(गत ब्लॉगसे आगेका)

भागवतमें आया है‒

तत्तेऽनुकम्पां सुसमीक्षमाणो भुञ्जान एवात्मकृतं विपाकम् ।
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते जीवेत यो मुक्तिपदे स दायभाक् ॥
                                         ( श्रीमद्भा १० । १४ । ८)

जो मनुष्य क्षण-क्षणपर बड़ी उत्सुकतासे आपकी कृपाका ही भलीभाँति अनुभव करता रहता है और प्रारब्धानुसार जो कुछ सुख या दुःख प्राप्त होता है, उसे निर्विकार मनसे भोग लेता है एवं जो प्रेमपूर्ण हृदय, गद्‌गद वाणी और पुलकित शरीरसे अपनेको आपके चरणोंमें समर्पित करता रहता है‒इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाला मनुष्य ठीक वैसे ही आपके परमपदका अधिकारी हो जाता है जैसे अपने पिताकी सम्पत्तिका पुत्र !’

विधवा स्त्रीको अपने चरित्रकी विशेष रक्षा करनी चाहिये । अगर वह व्यभिचार करती है तो वह अपने दोनों कुलोंको कलंकित करती है, मर्यादाका नाश करती है और मरनेके बाद घोर नरकोंमें जाती है । अतः उसको मर्यादामें रहना चाहिये, धर्म-विरुद्ध काम नहीं करना चाहिये । माता कुन्तीकी तरह उसको अपने वैधव्य-धर्मका पालन करना चाहिये । माता कुन्तीको याद करनेसे अपने धर्मके पालनका बल मिलता है ।

प्रश्न‒आजकल स्त्रीको पुरुषके समान अधिकार देनेकी बात कही जाती है, क्या यह ठीक है ?

उत्तर‒यह ठीक नहीं है । वास्तवमें स्त्रीका समान अधिकार नहीं है, प्रत्युत विशेष अधिकार है ! कारण कि वह अपने पिता आदिका त्याग करके पतिके घरपर आयी है; अतः घरमें उसका विशेष अधिकार होता है । वह घरकी मालकिन, बहूरानी कहलाती है । बाहर पतिका विशेष अधिकार होता है । जैसे रथ दो पहियोंसे चलता है पर दोनों पहिये अलग-अलग होते हैं । अगर दोनों पहियोंको एक साथ लगा दिया जाय तो रथ कैसे चलेगा ? जैसे दोनों पहिये अलग-अलग होनेसे ही रथ चलता है, ऐसे ही पति और पत्नीका अपना अलग-अलग अधिकार होनेसे ही गृहस्थ चलता है । अगर समान अधिकार दिया जाय तो स्त्रीकी तरह पुरुष गर्भ-धारण कैसे करेगा ? अतः अपना-अपना अधिकार ही समान अधिकार है । इसीमें दोनोंकी स्वतन्त्रता है ।

अपना-अपना अधिकार ही श्रेष्ठ है, उत्तम है । हमारेको थोड़ा अधिकार दिया गया है और पुरुषको ज्यादा अधिकार दिया गया है‒इस बातको लेकर ही भीतरमें यह वासना होती है कि हमारेको समान अधिकार मिले, पूरा अधिकार मिले । इस वासनामें हेतु है‒बेसमझी, मूर्खता । समझदारी हो तो थोड़ा ही अधिकार बढ़िया है । कर्तव्य अधिक होना चाहिये । कर्तव्यका दास अधिकार है, पर अधिकारका दास कर्तव्य नहीं है । यदि अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन किया जाय तो संसार, सन्त-महात्मा, शास्त्र और भगवान्‒ये सब अधिकार दे देते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे