।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७३, रविवार
लड़ाई-झगड़ेका समाधान


  (गत ब्लॉगसे आगेका)

प्रश्न‒पत्नी और पुत्र आपसमें लड़ें तो पुरुषका क्या कर्तव्य है ?

उत्तर‒उसे पुत्रको समझाना चाहिये कि बेटा ! माँको प्रसन्न रखना तुम्हारा विशेष कर्तव्य है । संसारमें जितने भी सम्बन्ध हैं, उन सबमें माँका सम्बन्ध ऊँचा है । अतः अपनी स्त्रीके वशीभूत होकर तुम्हें माँका चित्त नहीं दुखाना चाहिये ।’

पत्नीसे कहना चाहिये कि तुमने इसको पेटमें रखा है, जन्म दिया है, अपना दूध पिलाया है । अपनी गोदमें टट्टी-पेशाब करनेपर भी तुमने इसपर कभी गुस्सा नहीं किया, प्रत्युत प्रसन्नतासे उत्साहपूर्वक कपड़े धोये । अब यह तुम्हें कुछ कड़ुआ भी बोल दे तो भी अपना प्यारा पुत्र मानकर इसको क्षमा कर दो; क्योंकि तुम माँ हो । पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पर माता कुमाता नहीं हो सकती‒‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति’

प्रश्न‒परिवारमें प्रेम और सुख-शान्ति कैसे रहे ?

उत्तर‒जब मनुष्य अपने उद्देश्यको भूल जाता है, तभी सब बाधाएँ, आफतें आती हैं । अगर वह अपने उद्देश्यको जाग्रत् रखे कि चाहे जो हो जाय, मुझे अपनी आध्यात्मिक उन्नति करनी ही है, तो फिर वह सुख-दुःखको नहीं गिनता‒‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् ॥’ और अपने स्वार्थ एवं अभिमानका त्याग करनेमें उसको कोई कठिनाई भी नहीं होती । स्वार्थ और अभिमानका त्याग होनेसे व्यवहारमें कोई बाधा, अड़चन नहीं आती । व्यवहारमें, परस्पर प्रेम होनेमें बाधा तभी आती है जब मनुष्य अपनी मूँछ रखना चाहता है, अपनी बात रखना चाहता है, अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है ।

दूसरेका भला कैसे हो, उसका कल्याण कैसे हो, उसका आदर-सम्मान कैसे हो, उसको सुख-आराम कैसे मिले‒यह बात जब आचरणमें आ जाती है, तब सब कुटुम्बी प्रसन्न हो जाते हैं । किसी समय कोई कुटुम्बी अप्रसन्न भी हो जाय तो उसकी अप्रसन्नता टिकेगी नहीं, स्थायी नहीं रहेगी; क्योंकि जब कभी वह अपने लिये ठीक विचार करेगा, तब उसकी समझमें आ जायगा कि मेरा हित इसी बातमें है । जैसे बालकको पढ़ाया जाय तो खेलकूदमें वृत्ति रहनेके कारण उसको पढ़ाई बुरी लगती है, पर परिणाममें उसका हित होता है । ऐसे ही कोई बात ठीक होते हुए भी किसीको बुरी लगती है तो उस समय भले ही उसकी समझमें न आये, पर भविष्यमें जरूर समझमें आयेगी । कदाचित् उसकी समझमें न भी आये तो भी हमें अपनी नीयत और आचरणपर सन्तोष होगा कि हम उसका भला चाहते हैं और हमारे भीतर एक बल रहेगा कि हमारी बात सच्ची और ठोस है ।

आपसमें प्रेम रहनेसे ही परिवारमें सुख-शान्ति रहती है । प्रेम होता है अपने स्वार्थ और अभिमानके त्यागसे । जब स्वार्थ और अभिमान नहीं रहेगा, तब प्रेम नहीं होगा तो क्या होगा ! दूसरा व्यक्ति अपने स्वार्थके वशीभूत होकर हमारे साथ कड़ुआ बर्ताव करता है तो कभी-कभी यह भाव पैदा होता है कि मैं तो इसके साथ अच्छा बर्ताव करता हूँ, फिर भी यह प्रसन्न नहीं हो रहा है, मैं क्या करूँ ! ऐसा भाव होनेमें हमारी सूक्ष्म सुख-लोलुपता ही कारण है; क्योंकि दूसरे व्यक्तिके तत्काल सुखी, प्रसन्न होनेसे एक सुख मिलता है । अतः इस सुख-लोलुपताका पता लगते ही इसका त्याग कर देना चाहिये; क्योंकि हमें केवल अपना कर्तव्य निभाना है, दूसरेका आदर करना है, उसके प्रति प्रेम करना है । हमारे भाव और आचरणका उसपर असर पड़ेगा ही । हाँ, अन्तःकरणमें कठोरता होनेके कारण उसपर असर न भी पड़े तो भी हमने अपनी तरफसे अच्छा किया‒इस बातको लेकर हमें सन्तोष होगा । सन्तोष होनेसे हमारा प्रेम घटेगा नहीं और परिवारमें भी सुख-शान्ति रहेगी ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘गृहस्थमें कैसे रहें ?’ पुस्तकसे