(गत ब्लॉगसे आगेका)
श्रोता‒मेरी एक बच्ची है, और मेरे पति कुछ कमाते नहीं हैं ! मैं बड़ी दुःखी हूँ और तलाक
देनेकी सोच रही हूँ । मुझे क्या करना चाहिये ?
स्वामीजी‒तलाक देनेसे क्या कमाई हो जायगी ? बच्चीका विवाह हो जायगा ?
भाई लोगोंको सोचना चाहिये और निकम्मे न रहकर काम करना चाहिये
। हम साधु लोगोंको सब चीजें मुफ्तमें मिलती हैं । भोजन,
कपड़ा, मकान, यात्राके लिये टिकट आदि सब मुफ्तमें मिलते हैं । अगर हम कुछ
भी न करें तो भी हमें रोटी मिलेगी, फिर भी हमारा इतना काम रहता है कि समय नहीं मिलता ! आप लोगोंको
रविवारके दिन छुट्टी मिलती है, पर हमें किस दिन छुट्टी मिलती है ?
बारह महीनोंमें हमें कभी छ्ट्टी मिलती ही नहीं ! आप तो गृहस्थ
हो, आपको तो कभी निकम्मा रहना ही नहीं चाहिये । निकम्मा, आलसी
आदमी पापीसे भी नीचा होता है । वह मनुष्य कहलानेलायक नहीं है । हम कह सकते हैं,
समझा सकते हैं, और हम क्या कर सकते हैं ?
जो अपने स्त्री-बच्चोंका पालन नहीं कर सकता, उसको
विवाह कभी नहीं करना चाहिये । जो विवाह करके मेरे पास आते हैं, उनको मैं कहा करता हूँ कि तुम गरम रोटी खाया करो । जो बापकी
कमाई खाते हैं, वे ठण्डी रोटी खाते हैं,
और जो खुद कमाकर खाते हैं,
वे गरम रोटी खाते हैं । किसी रामायणमें यह बात नहीं आती कि रामजीने
भरतको समाचार दिया हो कि सीताको रावण ले गया है,
सहायता करो । रामजीने अपने पुरुषार्थसे सुग्रीवको राज्य दिलाया,
स्त्री दिलायी, तब उससे सहायता ली । इसलिये अपनी भुजाओंके बलपर विवाह करना चाहिये
। यदि अपनी स्त्री और बच्चोंका पालन करनेकी शक्ति नहीं है तो विवाह करनेका कोई अधिकार
नहीं है । दूसरा मेरी सहायता करे, यह आशा बिकुल मत रखें‒‘आशा हि परमं
दुःखम्’ (श्रीमद्भागवत ११ । ८ । ४४) ।
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सम्पूर्ण प्राणियोंको अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंके हितके
लिये कर्म करना चाहिये । दुनियाका एक भी आदमी उद्धारके बिना रह जाय,
तबतक काम करना किसीका छूटता नहीं,
चाहे वह महात्मा ही क्यों न हो ! जबतक
एक भी प्राणी बन्धनमें है, तबतक मनुष्यका, सन्तोंका
कर्तव्य समाप्त नहीं होता ।
जो लाभ देखकर काम करता है,
वह पारमार्थिक उन्नति कर सकता ही नहीं । शास्त्रकी आज्ञाको देखना
चाहिये, लाभ-हानिको नहीं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे
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