।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
पौष अमावस्या, वि.सं.२०७३, गुरुवार
अमावस्या
बिन्दुमें सिन्धु


     (गत ब्लॉगसे आगेका)

किसीको बुरा समझना भी उसका अहित करना है । दूसरेको बुरा माननेमात्रसे आपका अन्तःकरण मैला होता है । जो हमारा बुरा करे, उसका भी बुरा नहीं करना है । यह मार्मिक बात है कि किसीने हमारा बुरा किया है, वह हमारा बुरा नहीं हुआ है, प्रत्युत उससे हमारे पाप कटे हैं, हम शुद्ध हुए हैं । इसलिये हमारा बुरा कोई कर नहीं सकता ।

जो किसीका बुरा करना चाहता है, वह अपना ही बुरा करता है । किसीका बुरा चाहनेसे उसका बुरा हो जाय, यह निश्चित नहीं है, पर आपका बुरा हो जायगा, आपका अन्तःकरण अशुद्ध हो जायगा, यह निश्चित है । अगर दुष्ट लोगोंकी चाहना पूरी हो जाती, उनका वश चलता तो वे संसारमें किसीको सुखी नहीं रहने देते । परन्तु उनका वश उसीपर चलता है, जिसका प्रारब्ध खराब आया हो ।

दूसरेको शाप देनेसे उसको शाप लगे चाहे न लगे, पर आपका अन्तःकरण जरूर मैला हो जायगा, इसमें सन्देह नहीं है । द्वारका जाते समय बीचमें भगवान् श्रीकृष्णको उत्तंक मुनि मिले । उत्तंक मुनिने कहा कि महाराज, आपने कौरवों-पाण्डवोंका युद्ध नहीं होने दिया, यह आपने बहुत ठीक काम किया !’ भगवान्‌ने कहा कि युद्ध तो हो गया और कौरव मारे गये !’ यह सुनकर उत्तंकने कहा कि आपके रहते युद्ध हो गया ! यह आपने ठीक नहीं किया । मैं आपको शाप दूँगा !’ भगवान्‌ने कहा कि इसमें मेरा कोई कसूर नहीं है; अतः शाप देनेसे मेरेको तो शाप लगेगा नहीं, पर आपका पुण्य नष्ट हो जायगा’ (महाभारत, आश्व ५४) ।

सन्तलोग अपना अन्तःकरण शुद्ध रखनेके लिये बड़े तत्पर रहते हैं । एक साधु थे । उनकी मान-बड़ाई ज्यादा होने लगी तो उनसे द्वेष रखनेवाले कुछ लोग लाठी लेकर उनको मारने आये । साधुने तुरन्त एक चादर ओढ़ ली और आँखें मीच लीं । साधुको कई चोटें आयीं । लोगोंने साधुसे पूछा कि आपने चादर क्यों ओढ़ी ? क्या चादर ओढ़नेसे लाठीकी मार नहीं पड़ती ? वे साधु बोले कि अगर मैं उनको देख लेता और पहचान लेता तो उनके प्रति मेरे मनमें बुरा भाव आ जाता कि ये मेरा बुरा करनेवाले हैं ! मैं उनको देख न सकूँ, इसलिये मैंने चादर ओढ़ ली ।

सत्संग अलग चीज है और व्याख्यान, कथा अलग चीज है । सत्‌के साथ सम्बन्ध हो जाय‒इसको सत्संग’ कहते हैं । संसारमें जितना दुःख है, वह असत्‌के संगका फल है । असली सत्संग हो जाय अर्थात् सत्‌के साथ प्रेम हो जाय तो फिर दुःख नहीं होगा, विकार नहीं होगा, जन्म-मरण नहीं होगा, प्रत्युत स्वतः आनन्द रहेगा । कारण कि सत्‌में विकृति नहीं होती; सत्‌का अभाव नहीं होता‒‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २ । १६) और अभाव हुए बिना दुःख नहीं होता । अतः सत्‌का संग होनेसे दुःख सदाके लिये मिट जाता है । उस सत्‌के साथ सम्बन्ध जुड़ जानेका नाम ही सत्संग’ है । सत्‌के साथ सम्बन्ध तभी जुड़ता है, जब असत्‌का त्याग कर देते हैं । त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है‒‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरन्’ (गीता १२ । १२)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे