।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी, वि.सं.२०७३, रविवार
श्रीराम-विवाह
गीताकी विलक्षणता


धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाएँ आमने-सामने खड़ी हैं । दोनों सेनाओंके मध्यमें एक विशाल रथ खड़ा है, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण सारथि-रूपसे और अर्जुन रथी-रूपसे विराजमान हैं । कौरवसेनामें अपने स्वजनोंको देखकर अर्जुन भयभीत हो जाते हैं । वे युद्धसे नहीं, प्रत्युत अधर्मसे भयभीत होते हैं । कारण कि अर्जुन कल्याणके इच्छुक थे ( २ । ७, ३ । २, ५ । १) और यह कदापि नहीं चाहते थे कि उनके कल्याणमें कोई बाधा लगे । कल्याण युद्ध करनेमें है अथवा न करनेमें‒इस विषयमें अर्जुन किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं । वे भगवान् श्रीकृष्णको अपना प्रिय सखा मानते थे, पर आज पहली बार शरणागत होकर, अपनेको शिष्य मानकर भगवान्‌से अपने कल्याणका उपाय पूछते हैं‒‘यच्छेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (२ । ७) । युद्ध करने अथवा न करनेका कल्याणसे कोई सम्बन्ध नहीं है‒यह बतानेके लिये भगवान् बड़े विलक्षण ढंगसे अपने उपदेशका आरम्भ करते हैं ।

कल्याणके सभी साधनोंमें विवेककी अत्यधिक आवश्यकता है । मनुष्यशरीरकी जो महिमा गायी गयी है, वह महिमा विवेककी है, मनुष्यशरीरकी नहीं । इसलिये भगवान् सर्वप्रथम, सत्- सत्‌के विवेकका विवेचन करते हैं । इस विवेचनकी खास बात है‒‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’ (२ । १६) अर्थात् असत् (नाशवान्)-की सत्ता विद्यमान है ही नहीं और सत् ( विनाशी)-की सत्ता सदा ही विद्यमान है, उसका अभाव कभी होता ही नहीं, हो सकता ही नहीं । इस विषयको समझानेके लिये गीताने ‘असत्‌’ को शरीर, देह, क्षेत्र आदि नामोंसे और ‘सत्‌’ को शरीरी, देही, क्षेत्रज्ञ आदि नामोंसे कहा है । यदि वास्तविक दृष्टिसे देखें तो एक चिन्मय सत्तामात्रमें न असत् है, न सत्; न शरीर है, न शरीरी; न देह है, न देही । ये शब्द केवल अज्ञानी मनुष्योंको समझानेके लिये ही कहे जाते हैं । उस परमतत्त्वको अनिर्वचनीय बतानेके उद्देश्यसे गीताने इसे अनेक प्रकारसे कहा है; जैसे‒

(१) परमात्मतत्त्व सत् भी है और असत् भी‒‘सदसच्चाहम्’ (९ । १९) ।

(२) परमात्मतत्त्व सत् भी है, असत् भी है और सत्-असत्‌से पर भी है‒‘सदसत्तत्परं यत्’ (११ । ३७) ।

(३) परमात्मतत्त्व न सत् है और न असत् है‒‘न सत्तन्नासदुच्यते’ (१३ । १२) ।

तात्पर्य है कि सत्-तत्त्वका अनुभव तो किया जा सकता है, पर वर्णन नहीं किया जा सकता । एक चिन्मय सत्तामात्रके सिवाय कुछ नहीं है । इस सत्ताका कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन अथवा अभाव नहीं होता । परन्तु शरीर और संसारका प्रतिक्षण परिवर्तन और अभाव हो रहा है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे