।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.२०७३, सोमवार
श्रीस्कन्द-षष्ठी
गीताकी विलक्षणता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

शरीर मिला है और बिछुड़नेवाला है । उस शरीरको मैं, मेरा तथा मेरे लिये मानना जीवकी मूल भूल है, जिससे वह बन्धनमें पड़ा है । इस भूलको मिटानेके लिये ही भगवत्कृपासे जीवको विवेकप्रधान मनुष्यशरीर मिला है । उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, घटना और नष्ट होना‒ये छहों विकार शरीरमें ही होते हैं । शरीरी (आत्मा अर्थात् चिन्मय सत्ता)-तक ये विकार पहुँचते ही नहीं, पहुँच सकते ही नहीं । अंधकार सूर्यतक पहुँच ही कैसे सकता है !

जिस कल्याणकी प्राप्ति विवेकप्रधान ज्ञानयोगसे होती है, उसी कल्याणकी प्राप्ति कर्मयोगसे भी हो सकती है । यह अन्य शास्त्रोंकी अपेक्षा गीताकी विलक्षणता है । कल्याणकी प्राप्तिमें ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों ही साधनोंको भगवान् समकक्ष बताते हैं‒

     सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।       (५ । २)
     एकमप्यास्थित सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥    (५ । ४)
     यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।   (५ । ५)

इन दोनों ही साधनोंको भगवान् लौकिक बताते हैं (३ । ३) । इन साधनोंसे साधककी बुद्धि समतामें स्थिर हो जाती है । ज्ञानयोगमें अपने विवेकको महत्त्व देनेसे समता आती है और कर्मयोगमें निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करनेसे समता आती है ।

अन्य शास्त्रोंमें यह बात प्रसिद्ध है कि मुमुक्षा जाग्रत् होनेपर कर्मोंका स्वरूपसे त्याग कर देना चाहिये; जैसे‒

परीक्ष्य लोकान्‌ कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन ।
तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणि श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ॥
                                                                     (मुण्डक १ । २ । १२)

‘कर्मसे प्राप्त किये जानेवाले लोकोंकी परीक्षा करके ब्राह्मण वैराग्यको प्राप्त हो जाय, यह समझ ले कि किये जानेवाले कर्मोंसे परमात्मतत्त्व नहीं मिल सकता । वह उस ब्रह्मज्ञानको प्राप्त करनेके लिये हाथमें समिधा लेकर श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ गुरुके पास जाय ।’

तावत् कर्माणि कुर्वीत न निर्विद्येत यावता ।
                                                        (श्रीमद्भा ११ । २० । ९)

‘तभीतक कर्म करना चाहिये, जबतक वैराग्य न हो जाय ।’

परन्तु गीताके अनुसार कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करना असम्भव है‒

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ।
कार्यते ह्यवशः  कर्म   सर्वः  प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
                                                                           (३ । ५)


‘कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृतिके परवश हुए सब प्राणियोंसे प्रकृतिजन्य गुण कर्म करवा लेते हैं ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे