।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
गीताकी विलक्षणता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

इसलिये भगवान् कर्मोंके त्यागका उपदेश न देकर फलेच्छाके त्यागका उपदेश देते हैं‒

कर्मण्येवाधिकारस्ते  मा  फलेषु  कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
                                                         (२ । ४७)

‘कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं । अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ।’

एतान्यपि तु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा फलानि च ।
कर्तव्यानीति   मे  पार्थ   निश्चितं   मतमुत्तमम् ॥
                                                       (१८ । ६)

‘हे पार्थ ! इन (यज्ञ, दान और तपरूप) कर्मोंको तथा दूसरे भी कर्मोंको आसक्ति और फलोंकी इच्छाका त्याग करके करना चाहिये‒यह मेरा निश्चित किया हुआ उत्तम मत है ।’

कर्म स्वभावसे ही मनुष्यको बाँधनेवाले हैं‒‘कर्मणा बध्यते जन्तुः’ । परन्तु भगवान्‌ने कर्मोंकी बन्धनकारक शक्तिको नष्ट करके उन्हें भी कल्याणके योग्य बना दिया है‒‘योगः कर्मसु कौशलम्’ (२ । ५०) ‘कर्मोंमें योग ही कुशलता है’ । तात्पर्य है कि जो कर्म स्वभावसे ही मनुष्यको बाँधनेवाले हैं, वे ही योग (समता अथवा निष्कामभाव)-पूर्वक करनेसे मुक्ति देनेवाले हो जाते हैं । इसलिये भगवान् स्पष्टरूपसे आज्ञा देते हैं‒

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरकर्म परमाणोति पूरुषः ॥
                                                  (३ । १९)

‘इसलिये तू निरन्तर आसक्तिरहित होकर कर्तव्य-कर्मका भलीभाँति आचरण कर; क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है ।’

केवल साधकके लिये ही नहीं, सिद्ध महापुरुषके लिये भी भगवान् आज्ञा देते हैं‒

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत ।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् ॥
                                                      (३ । २५)

‘हे भरतवंशोद्भव अर्जुन ! कर्ममें आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं, आसक्तिरहित तत्त्वज्ञ महापुरुष भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ उसी प्रकार कर्म करे ।’

इतना ही नहीं, सबसे बढ़कर प्रमाण भगवान् अपना देते हैं‒

न मे पार्थास्ति कर्तव्य त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं    वर्त  एव  च  कर्मणि ॥
                                                      (३ । २२)


‘हे पार्थ ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्य-कर्ममें ही लगा रहता हूँ ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे