(गत ब्लॉगसे आगेका)
गीताके अनुसार मनुष्य युद्ध-जैसे घोर कर्म करते हुए भी अपना
कल्याण कर सकता है, इससे बढ़कर और क्या बात होगी‒
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
(२ । ३८)
‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार
युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।’
यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
(१८ । १७)
‘जिसका अहंकृतभाव (‘मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं
है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्धमें इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और
न बँधता है ।’
ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों ही साधनोंमें निश्चयात्मिका बुद्धिका
होना अनिवार्य है‒
‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन’ (२ । ४१)
‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते’ (२ । ४४)
‘नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य’ (२ । ६६)
इसलिये साधन सिद्ध होनेपर मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है अर्थात्
उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है‒
‘समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि’ (२ । ५३)
‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते’
(२ । ५५)
‘स्थितधीर्मुनिरुच्यते’ (२ । ५६)
‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’ (२ । ५७-५८ । ६१, ६८)
‘बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’ (२ । ६५)
बुद्धि स्थिर होनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है । परन्तु मुक्त होनेपर भी उसमें सूक्ष्म अहम् रह
जाता है । कारण कि अहम् बुद्धिसे परे है‒
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
(७ । ४)
इस अहम्का सर्वथा नाश भक्तियोगमें ही होता है ।
कारण कि भक्तियोगमें भक्तकी बुद्धि व्यवसित नहीं होती, प्रत्युत भक्त स्वयं (जो कि भगवान्का अंश है) व्यवसित
होता है‒‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ (९ । ३०) । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‒यह अपरा प्रकृति है और स्वयं परा प्रकृति है (७ । ४-५) । इसलिये
गीता भक्तियोग (पराभक्ति)-की प्राप्तिमें ही साधनकी पूर्णता
मानती है । यही विशेषता गीताको अन्य दर्शनशास्त्रोंसे भिन्न करती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे
[*] बुद्धिसे परे अहम् है । अहम् अर्थात् चिज्जड़ग्रन्थिमें एक जड-अंश है, एक चेतन-अंश ।
उस जड-अंशमें काम रहता है । (विस्तारसे जाननेके लिये साधक-संजीवनी टीका पढ़नी चाहिये)
|