।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
मार्गशीर्ष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
गीताकी विलक्षणता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

गीताके अनुसार मनुष्य युद्ध-जैसे घोर कर्म करते हुए भी अपना कल्याण कर सकता है, इससे बढ़कर और क्या बात होगी‒

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व  नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
                                                      (२ । ३८)

‘जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा । इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा ।’

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥
                                                     (१८ । १७)

‘जिसका अहंकृतभाव (‘मैं कर्ता हूँ‒ऐसा भाव) नहीं है और जिसकी बुद्धि लिप्त नहीं होती, वह युद्धमें इन सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता है ।’

ज्ञानयोग और कर्मयोग‒दोनों ही साधनोंमें निश्चयात्मिका बुद्धिका होना अनिवार्य है‒

    ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन’        (२ । ४१)
    ‘व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते’ (२ । ४४)
    ‘नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य’                             (२ । ६६)

इसलिये साधन सिद्ध होनेपर मनुष्य स्थितप्रज्ञ हो जाता है अर्थात् उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है‒

    ‘समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि’   (२ । ५३)
    ‘आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते’   (२ । ५५)
    ‘स्थितधीर्मुनिरुच्यते’                              (२ । ५६)
    ‘तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता’         (२ । ५७-५८ । ६१, ६८)
    ‘बुद्धिः पर्यवतिष्ठते’                                 (२ । ६५)

बुद्धि स्थिर होनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, जन्म-मरणके चक्रसे छूट जाता है । परन्तु मुक्त होनेपर भी उसमें सूक्ष्म अहम्‌ रह जाता है । कारण कि अहम् बुद्धिसे परे है‒

‘मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः’ (३ । ४२)[*]
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे   भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
                                                  (७ । ४)

इस अहम्‌का सर्वथा नाश भक्तियोगमें ही होता है । कारण कि भक्तियोगमें भक्तकी बुद्धि व्यवसित नहीं होती, प्रत्युत भक्त स्वयं (जो कि भगवान्‌का अंश है) व्यवसित होता है‒‘सम्यग्व्यवसितो हि सः’ (९ । ३०) । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहम्‌‒यह अपरा प्रकृति है और स्वयं परा प्रकृति है (७ । ४-५) । इसलिये गीता भक्तियोग (पराभक्ति)-की प्राप्तिमें ही साधनकी पूर्णता मानती है । यही विशेषता गीताको अन्य दर्शनशास्त्रोंसे भिन्न करती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे



[*] बुद्धिसे परे अहम् है । अहम् अर्थात् चिज्जड़ग्रन्थिमें एक जड-अंश है, एक चेतन-अंश । उस जड-अंशमें काम रहता है । (विस्तारसे जाननेके लिये साधक-संजीवनी टीका पढ़नी चाहिये)