।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
वेद और श्रीमद्भगवद्गीता


(गत ब्लॉगसे आगेका)

सृष्टिचक्रको चलानेमें वेदोंकी मुख्य भूमिका है । वेद कर्तव्य-कर्मोंको करनेकी विधि बताते हैं‒‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि’ (गीता ३ । १५), ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’ (गीता ४ । ३२)[1] । मनुष्य उन कर्तव्य-कर्मोंका विधिपूर्वक पालन करते हैं । निष्कामभावसे कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ होता है । यज्ञसे वर्षा होती है, वर्षासे अन्न होता है, अन्नसे प्राणी उत्पन्न होते हैं और उन प्राणियोंमें मनुष्य कर्तव्य-कर्मोंके पालनसे यज्ञ करते हैं । इस तरह यह सृष्टिचक्र चल रहा है‒

अन्नाद्भवन्ति भूतानि   पर्जन्यादन्नसम्भव ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो   यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि  ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् ॥
                                         (गीता ३ । १४-१५)

भगवान् गीतामें कहते हैं कि ऊपरकी ओर मूलवाले तथा नीचेकी ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्षको जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है‒

ऊर्ध्वभूलमधःशाखमश्वत्थं       प्राहुरव्ययम् ।
छन्दासि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
                                                   (१५ । १)

संसारसे विमुख होकर उसके मूल परमात्मासे अपनी अभिन्नताका अनुभव कर लेना ही वेदोंका वास्तविक तात्पर्य जानना है । वेदोंका अध्ययन करनेमात्रसे मनुष्य वेदोंका विद्वान् तो हो सकता है, पर यथार्थ तत्ववेत्ता नहीं । परन्तु वेदोंका अध्ययन न होनेपर भी जिसको संसारसे सम्बन्ध-विच्छेदपूर्वक परमात्मतत्त्वका अनुभव हो गया है, वही वास्तवमें वेदोंके तात्पर्यको जाननेवाला अर्थात् अनुभवमें लानेवाला ‘वेदवेत्ता’ है‒‘यस्तं वेद स वेदवित् ।’ भगवान्‌ने भी अपनेको वेदान्तका कर्ता अर्थात् वेदोंके निष्कर्षका वक्ता और वेदवेत्ता कहा है‒‘वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्’ (१५ । १५) । इससे यह तात्पर्य निकलता है कि जिसने परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लिया है, ऐसे वेदवेत्ताकी भगवान्‌के साथ एकता (सधर्मता) हो जाती है‒‘मम साधर्म्यमागता’ (गीता १४ । २) ।

भगवान्‌ने गीतामें अपनेको ही संसारवृक्षका मूल ‘पुरुषोत्तम’ बताया है‒

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि      चोत्तम ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥
                                                   (१५ । १८)

‘मैं क्षरसे अतीत हूँ और अक्षरसे भी उत्तम हूँ, इसलिये लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध हूँ ।’




[1] यहाँ ‘ब्रह्म’ पद वेदका वाचक है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे