।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण तृतीया, वि.सं.२०७३, रविवार
स्त्रीके दो रूप‒कामिनी और माता


प्रायः कई लोगोंकी यह शिकायत रहती है कि शास्त्रकारोंने स्त्रियोंकी बड़ी निन्दा की है । इस विषयमें गम्भीरतापूर्वक विचार करें तो पता लगता है कि स्त्रीके दो रूप है-कामिनीरूप और मातृरूप । विभिन्न धर्मोंमें जहाँ भी स्त्रियोंकी निन्दा की गयी है, वह कामिनी अर्थात् भोग्यारूपकी ही निन्दा है, मातृरूपकी नहीं । मातृरूपसे तो स्त्रीको पुरुषसे भी सहस्रगुना श्रेष्ठ माना गया है‒

उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता ।
सहस्रं    तु     पितॄता     गौरवेणातिरिव्यते ॥
                                              (मनु २ । १४५)

‘दस उपाध्यायोकी अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्योंकी अपेक्षा पिता और सहस्र पिताओंकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है ।’

संन्यासीके लिये कहा गया है कि वह हाड़-मांसमय शरीरवाली स्त्रीका तो कहना ही क्या है, लकड़ीसे बनी हुई स्त्रीका भी स्पर्श न करे और हाथसे स्पर्श करना तो दूर रहा, पैरसे भी स्पर्श न करे‒

पदापि युवतीं भिक्षुर्न स्पृशेद् दारवीमपि ।
                                      (श्रीमद्भा ११ । ८ । १३)

परन्तु उसी संन्यासीके लिये कहा गया है कि यदि उसकी माता सामने आ जाय तो उसे आदरपूर्वक प्रणाम करे‒

सर्ववन्द्येन यतिना प्रसूर्वन्द्या प्रयत्नतः ॥
                                     (स्कन्दपु, काशी ११ । ५०)

सभी गुरुजनोंमें माताको परम गुरु माना गया है‒

गुरूणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरुः ।
                                      (महा, आदि १९५ । १६)

‘नास्ति मातुः परो गुरुः’
                             (अत्रिसंहिता १५०)

‘नास्ति मातृसमो गुरुः’
                    (महा, शान्ति १०८ । १८)

शास्त्रमें यहाँतक आया है‒

पतिता गुरवस्त्याज्या माता च न कथञ्जन ।
गर्भधारणपोषाभ्यां   तेन माता गरीयसी ॥
               (स्कन्दपु, मा कौ ६ । १०७; मत्मपु २२७ । १५०)

‘पतित गुरु भी त्याज्य है, पर माता किसी प्रकार भी त्याज्य नहीं है । गर्भकालमें धारण-पोषण करनेके कारण माताका गौरव गुरुजनोंसे भी अधिक है ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सन्त-समागम’ पुस्तकसे