।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण अष्टमी, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
अहंता (मैं-पन्)


(गत ब्लॉगसे आगेका)

मैं-पन ही मात्र संसारका बीज है ।
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शरीरको मैं-मेरा माननेसे तरह-तरहके और अनन्त दुःख आते हैं ।
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एक अहम्‌के त्यागसे अनन्त सृष्टिका त्याग हो जाता है; क्योंकि अहम्‌ने ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण कर रखा है ।
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 ‘मैं बन्धनमें हूँ’इसमें जो ‘मैं’ है, वही ‘मैं मुक्त हूँ’ अथवा ‘मैं ब्रह्म हूँ’इसमें भी है ! इस ‘मैं’ (अहम्) का मिटना ही वास्तवमें मुक्ति है ।
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जगत्, जीव और परमात्मा‒ये तीनों एक ही हैं, पर अहंताके कारण ये तीन दीखते हैं ।
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वास्तवमें असंगता शरीरसे ही होनी चाहिये । समाजसे असंगता होनेपर अहंता (व्यक्तित्व) मिटती नहीं, प्रत्युत दृढ़ होती है ।
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हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है‒यह बात यदि समझमें आ जाय तो इसी क्षण जीवन्मुक्ति है ।
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संघर्ष जाति या धर्मको लेकर नहीं होता, प्रत्युत अहंकारसे पैदा होनेवाले स्वार्थ और अभिमानको लेकर होता है ।
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अपनेमें विशेषता देखना अहंताको, परिच्छिन्नताको, देहाभिमानको पुष्ट करता है ।
भगवान्‌से उत्पन्न हुई सृष्टि भगवद्‌रूप ही है, पर जीव अहंता, आसक्ति, रागके कारण उसको जगद्‌रूप बना लेता है ।
उद्देश्य
जिसके लिये मनुष्यजन्म मिला है, उस परमात्मप्राप्तिका ही उद्देश्य हो जानेपर मनुष्यको सांसारिक सिद्धि-असिद्धि बाधा नहीं दे सकती ।
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जैसे रोगीका उद्देश्य नीरोग होना है, ऐसे ही मनुष्यका उद्देश्य अपना कल्याण करना है । सांसारिक सिद्धि-असिद्धिको महत्त्व न देनेसे अर्थात् उनमें सम रहनेसे ही उद्देश्यकी सिद्धि होती है ।
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  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे