।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ कृष्ण द्वादशी, वि.सं.२०७३, मंगलवार
कर्तव्य


(गत ब्लॉगसे आगेका)

जिससे दूसरोंका हित होता है, वही कर्तव्य होता है । जिससे किसीका भी अहित होता है, वह अकर्तव्य होता है ।
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राग-द्वेषके कारण ही मनुष्यको कर्तव्य-पालनमें परिश्रम या कठिनाई प्रतीत होती है ।
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जिसे करना चाहिये और जिसे कर सकते हैं, उसका नाम ‘कर्तव्य’ है । कर्तव्यका पालन न करना प्रमाद है, प्रमाद तमोगुण है और तमोगुण नरक है‒‘नरकस्तमउन्नाहः’ (श्रीमद्भा ११ । १९ । ४३)
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अपने सुखके लिये किये गये कर्म ‘असत्‌’ और दूसरेके हितके लिये किये गये कर्म ‘सत्‌’ होते हैं । असत्-कर्मका परिणाम जन्म-मरणकी प्राप्ति और सत्-कर्मका परिणाम परमात्माकी प्राप्ति है ।
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अच्छे-से-अच्छा कार्य करो, पर संसारको स्थायी मानकर मत करो ।
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जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है ।
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दूसरोंकी तरफ देखनेवाला कभी कर्तव्यनिष्ठ हो ही नहीं सकता, क्योंकि दूसरोंका कर्तव्य देखना ही अकर्तव्य है ।
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गृहस्थ हो अथवा साधु हो, जो अपने कर्तव्यका ठीक पालन करता है, वही श्रेष्ठ है ।
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अपने लिये कर्म करनेसे अकर्तव्यकी उत्पत्ति होती है ।
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अपने कर्तव्य (धर्म) का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है‒‘धर्म तें बिरति’ (मानस ३ । १६ । १) । यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया ।
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अपने कर्तव्यका ज्ञान हमारेमें मौजूद है । परन्तु कामना और ममता होनेके कारण हम अपने कर्तव्यका निर्णय नहीं कर पाते ।
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  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे