।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
माघ अमावस्या, वि.सं.२०७३, शुक्रवार
अमावस्या
कामना


(गत ब्लॉगसे आगेका)

कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे, अपने स्वरूपसे और अपने इष्ट (भगवान्) से विमुख हो जाता है और नाशवान् संसारके सम्मुख हो जाता है ।
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साधकको न तो लौकिक इच्छाओंकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये ।
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कामनाओंके त्यागमें सब स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ हैं । परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र, अधिकारी, योग्य और समर्थ नहीं है ।
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ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है । कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है ।
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कामनामात्रसे कोई भी पदार्थ नहीं मिलता, अगर मिलता भी है तो सदा साथ नहीं रहता‒ऐसी बात प्रत्यक्ष होनेपर भी पदार्थोंकी कामना रखना प्रमाद ही है ।
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जीवन तभी कष्टमय होता है, जब संयोगजन्य सुखकी इच्छा करते हैं और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं ।
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यदि वस्तुकी इच्छा पूरी होती हो तो उसे पूरी करनेका प्रयत्न करते और यदि जीनेकी इच्छा पूरी होती हो तो मृत्युसे बचनेका प्रयत्न करते । परन्तु इच्छाके अनुसार न तो सब वस्तुएँ मिलती हैं और न मृत्युसे बचाव ही होता है ।
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इच्छाका त्याग करनेमें सब स्वतन्त्र हैं, कोई पराधीन नहीं है और इच्छाकी पूर्ति करनेमें सब पराधीन हैं, कोई स्वतन्त्र नहीं है ।
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सुखकी इच्छा, आशा और भोग‒ये तीनों सम्पूर्ण दुःखोंके कारण हैं ।
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नाशवान्‌की चाहना छोड़नेसे अविनाशी तत्त्वकी प्राप्ति होती है ।

  (अपूर्ण)
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे