।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.२०७३, बुधवार
गीतामें भगवान्‌का विविध रूपोंमें प्रकट होना



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जिस प्रकृतिसे सत्त्व, रज और तम‒ये तीनों गुण उत्पन्न होते है, उसका अधिष्ठाता (स्वामी) मैं ही हूँ, महासर्गके आदिमें मैं ही संसारकी रचना करता हूँ; ब्रह्म, अविनाशी अमृत, सनातनधर्म तथा ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं ही हूँ‒यह बात बतानेके लिये भगवान् चौदहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘आदिपुरुष’रूपसे प्रकट होते हैं (१४ । २७) ।

इस संसारका मूल मैं ही हूँ; सूर्य, चन्द्र आदिमें मेरा ही तेज है; मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको धारण करता हूँ; वेदोंको जाननेवाला, वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य भी मैं ही हूँ; मैं क्षर-(संसार-) से अतीत एवं अक्षर-(जीवात्मा-) से श्रेष्ठ हूँ; वेदोंमें और शास्त्रोंमें मैं ही श्रेष्ठ पुरुषके नामसे प्रसिद्ध हूँ‒अपनी यह सर्वश्रेष्ठता बतानेके लिये भगवान् पन्द्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘पुरुषोत्तम’रूपसे प्रकट होते हैं (१५ । १७‒१९) ।

दम्भ, दर्प, अभिमान आदि जितने भी दुर्गुण हैं, वे सभी मनुष्योंके अपने बनाये हुए हैं अर्थात् ये मेरे नहीं हैं; परंतु अभय, अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा आदि जितने भी उत्तम गुण हैं, वे सभी मेरे हैं और मेरी प्राप्ति करानेवाले हैं‒यह बात बतानेके लिये भगवान् सोलहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘दैवी-सम्पत्ति’रूपसे प्रकट होते हैं (१६ । १‒३) ।

अगर कोई परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे यज्ञ, तप, दान आदि शुभकर्म करे और उनमें कोई कमी (अंग-वैगुण्य) रह जाय तो जिस भगवान्‌से यज्ञ आदि रचे गये हैं, उस भगवान्‌का नाम लेनेसे उस कमीकी पूर्ति हो जाती है‒यह बात बतानेके लिये भगवान् सत्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ॐ तत् सत्‌’ नामोंके रूपसे प्रकट होते हैं (१७ । २३) ।

सम्पूर्ण गीतोपदेशका सार अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि सभी साधनोंका सार मेरी शरणागति है‒यह बतानेके लिये भगवान् अठारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वशरण्य’रूपसे प्रकट होते हैं (१८ । ६६)

तात्पर्य है कि साधकका भगवान्‌के प्रति ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके भावके अनुसार अपनेको प्रकट करते हैं, जिससे साधक भक्तके भाव श्रद्धा, विश्वास भी बढ़ते रहते हैं । इनके बढ़ते-बढ़ते अन्तमें भगवत्प्राप्ति हो जाती है । साधकको सावधानी इस बातकी रखनी है कि उसका अनन्यभाव कभी डिगे नहीं, अनन्यभावसे वह कभी विचलित न हो ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒ ‘गीता-दर्पण’ पुस्तकसे