।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण पंचमीवि.सं.२०७३शुक्रवार
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

किसी तरहसे भगवान्‌में लग जाओ, चाहे भगवान्‌को भगवान् जानते हुए लगो, चाहे भगवान् न जानते हुए लगो, अन्तमें वह कल्याण करेगा ही; जैसे‒अग्निको अग्नि जानकर स्पर्श करो, चाहे अग्नि न जानकर स्पर्श करो, वह तो जलायेगी ही; क्योंकि जलाना उसका स्वभाव है । माघ-स्नान और वैशाख-स्नान‒दोनोंका समान माहात्म्य है, पर माघ-स्नानमें (अत्यधिक ठण्ड होनेके कारण) कष्ट होता है और वैशाख-स्नानमें आनन्द होता है । भगवान्‌में भय अथवा द्वेषपूर्वक लगना माघ- स्नानकी तरह है और प्रेमपूर्वक लगना वैशाख-स्नानकी तरह है, पर कल्याण करनेमें कोई फर्क नहीं है ।
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सत्संगके अन्तमें जब कीर्तन होता है, तब कुछ भाई-बहन उठ जाते हैं । इसपर मेरेको बड़ा आश्चर्य आता है ! कीर्तनमें उठनेसे भगवन्नामका तिरस्कार, अपमान होता है । कीर्तनसे उठकर आप घर जाकर करोगे क्या ? इसपर विचार करना चाहिये । घर जाकर इससे बढ़कर क्या काम करोगे ? मेरी समझमें आपका ऐसा कोई काम है ही नहीं, जो कीर्तनसे बढ़कर हो । कीर्तनमें उठनेसे बड़ा भारी अपराध होता है !

सत्संगके बीचमें भी नहीं उठना चाहिये । बीचमें उठनेसे सत्संगका अपमान, निरादर होता है । सत्संगमें एक-दो व्यक्ति भी उठ जायँ तो वह रस नहीं रहता । इससे अनध्याय होता है, सत्संगमें विघ्न होता है । अगर किसीको उठना ही हो तो वह बीचमें कभी न बैठे । अगर यहाँसे उठकर कोई काम करना है तो वह काम ही करो । अगर वह काम बढ़िया है तो उस काममें ही लगो, यहाँ बैठे ही क्यों हो ? अगर आपको बीचमें उठना ही हो तो बीचमें, सामने मत बैठो । किनारेमें एक तरफ बैठो । मेरेको पता ही नहीं लगे कि कौन उठकर गया । मेरे सामनेसे कोई उठकर चला जाय तो जो बातें मैं कह रहा हूँ उनमें बाधा लग जाती है; अच्छी बातें उपजती ही नहीं ! मैं तो अपने साथ जबर्दस्ती करके बातें कहता हूँ !

सत्संगमें रस तभी आता है, जब सत्संग सुननेवाले उत्कण्ठित हो जायँ । श्रोताओंकी उत्कण्ठा हो तो ऐसी बातें पैदा होती हैं कि मेरेको भी आश्चर्य आता है कि ऐसी बातें मेरेको पता ही नहीं हैं !
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भगवान्‌के सम्मुख हो जाय तो आनन्द-ही-आनन्द है और संसारके सम्मुख हो जाय तो दुःख-ही-दुःख है । हमारे पास भले ही खरबों रुपये हों, पर इससे शान्ति नहीं मिल सकती । संसारकी चीजोंको अपना समझते हैं और भगवान्‌को अपना नहीं समझते‒यह मूल भूल है । इस भूलको मिटाओ । भगवान्‌के सिवाय दूसरा कोई अपना है नहीं‒मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’ । यह सार बात है ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे