(गत ब्लॉगसे आगेका)
तत्त्वज्ञान अभ्याससे नहीं होता,
प्रत्युत अपने विवेकको महत्त्व देनेसे होता है । अभ्याससे एक
नयी अवस्था बनती है, तत्त्व नहीं मिलता ।
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जबतक तत्त्वज्ञान नहीं हो जाता,
तबतक सब प्राणी कैदी हैं । कैदीका लक्षण है‒पापकर्म करे अपनी
मरजीसे और दुःख भोगे दूसरेकी मरजीसे ।
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‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह अनुभव नहीं है, प्रत्युत अहंग्रह-उपासना है । इसलिये तत्त्वज्ञान
होनेपर ‘मैं ब्रह्म हूँ’‒यह अनुभव नहीं होता ।
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तत्त्वज्ञान होनेपर काम-क्रोधादि विकारोंका अत्यन्त अभाव हो
जाता है ।
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जबतक हमारी दृष्टिमें असत्की सत्ता है,
तबतक विवेक है । असत्की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता
है ।
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अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव होना तत्त्वज्ञान है,
जीवन्मुक्ति है ।
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तत्त्वज्ञान होनेपर ज्ञानी पुरुष परिस्थितिसे रहित नहीं होता,
प्रत्युत सुख-दुःखसे रहित होता है ।
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तत्त्वज्ञान शरीरका नाश नहीं करता,
प्रत्युत शरीरके सम्बन्धका अर्थात् अहंता-ममताका नाश करता है
।
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तत्त्वज्ञान अर्थात् अज्ञानका नाश एक ही बार होता है और सदाके
लिये होता है ।
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जैसा है, वैसा अनुभव कर लेनेका नाम ही ‘ज्ञान’
है । जैसा है नहीं,
वैसा मान लेनेका नाम ‘अज्ञान’
है ।
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नारायण ! नारायण
!! नारायण !!!
‒‘अमृतबिन्दु’ पुस्तकसे |