दुनियाके लिये रोनेमें और भगवान्के लिये रोनेमें बड़ा फर्क है
। दुनियाके लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्के लिये रोते हैं तो आँसू
ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवालेके हृदयमें जलन होती है और भगवान्के लिये रोनेवालेके
हृदयमें ठण्डक होती है । भगवान्के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है ! संसारकी तरफ चलनेमें
ही दुःख है । भगवान्की तरफ चलनेमें सुख-ही-सुख है । भगवान्
मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख !
जैसे भगवान्को हनुमानजी बहुत प्यारे हैं, ऐसे
ही कलियुगमें भजन करनेवाला भगवान्को बहुत प्यारा है ।
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हिन्दूधर्म बहुत विलक्षण है । इसमें छोटी-से-छोटी बातसे लेकर
बड़ी-से-बड़ी बातका धर्मसे सम्बन्ध है, और धर्मका सम्बन्ध कल्याणके साथ है । जीव अपना उद्धार कर ले,
इसके लिये सन्त-महात्माओंने इस पद्धतिकी खोज की है । हिन्दूधर्ममें छोटे-बड़े जो-जो नियम बताये गये हैं, वे
सब कल्याणके साथ सम्बन्ध रखते हैं । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैं, कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैं,
पर वास्तवमें सबका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । इसमें व्याकरण
भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे अन्तमें ब्रह्मकी प्राप्ति बतायी है । अतः इस धर्मका त्याग करना वास्तवमें अपने कल्याणका त्याग करना है, परमात्मप्राप्तिका
त्याग करना है !
आज हिन्दुओंने प्रायः शिखा (चोटी) रखनी छोड़ दी है । यह वास्तवमें
कलियुगका प्रभाव है, जिससे सब जीव सुगमतासे नरकोंमें जायँ ! शिखा रखना मामूली काम दीखता है, पर
यह मामूली काम नहीं है । पहले सब
आदमी शिखा रखते थे, पर मेरे देखते-देखते आदमी शिखारहित हो गये ! मेरी आप लोगोंसे प्रार्थना है कि आप शिखा धारण करें । शिखाका त्याग
न करें । ऐसे हिन्दुओंके सब चिह्न छूट जायँगे तो बड़ी दुर्दशा होगी !
मेरा विषय लौकिक नहीं है । एक व्याख्यान होता है,
एक सत्संग होता है । मेरा विषय सत्संगका है,
व्याख्यानका नहीं । सत्संगके विषयमें वे बातें हैं,
जिनसे जीवका कल्याण हो जाय । इनके साथ-साथ मैं वे बातें भी कहता
हूँ जो कल्याणमें सहायक हैं ।
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एक बड़े रहस्यकी सार बात है,
जो मेरेको सन्तोंसे मिली है । वह बात शास्त्रकी पढ़ाई करनेपर
भी मेरेको नहीं मिली । हमारे सन्तोंने एक जगह लिखा है कि मनुष्यके द्वारा कोई भी पाप
हो जाय तो प्रायश्चित्त करना चाहिये । प्रायश्चित्तमें तीन बातें बतायीं‒पहली बात,
मनमें यह बात होनी चाहिये कि मैंने पाप किया है । दूसरी बात,
इस बातका दुःख होना चाहिये कि समझदार होकर,
साधक होकर मैंने यह पाप किया ! तीसरी बात,
ऐसी प्रतिज्ञा करे कि अब आगे मैं यह पाप कभी नहीं करूँगा ।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
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‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |