।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.२०७३, सोमवार
बिन्दुमें सिन्धु


दुनियाके लिये रोनेमें और भगवान्‌के लिये रोनेमें बड़ा फर्क है । दुनियाके लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्‌के लिये रोते हैं तो आँसू ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवालेके हृदयमें जलन होती है और भगवान्‌के लिये रोनेवालेके हृदयमें ठण्डक होती है । भगवान्‌के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है ! संसारकी तरफ चलनेमें ही दुःख है । भगवान्‌की तरफ चलनेमें सुख-ही-सुख है । भगवान् मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख !

जैसे भगवान्‌को हनुमानजी बहुत प्यारे हैं, ऐसे ही कलियुगमें भजन करनेवाला भगवान्‌को बहुत प्यारा है ।
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हिन्दूधर्म बहुत विलक्षण है । इसमें छोटी-से-छोटी बातसे लेकर बड़ी-से-बड़ी बातका धर्मसे सम्बन्ध है, और धर्मका सम्बन्ध कल्याणके साथ है । जीव अपना उद्धार कर ले, इसके लिये सन्त-महात्माओंने इस पद्धतिकी खोज की है । हिन्दूधर्ममें छोटे-बड़े जो-जो नियम बताये गये हैं, वे सब कल्याणके साथ सम्बन्ध रखते हैं । कोई परम्परासे सम्बन्ध रखते हैं, कोई साक्षात् सम्बन्ध रखते हैं, पर वास्तवमें सबका सम्बन्ध परमात्माके साथ है । इसमें व्याकरण भी एक दर्शनशास्त्र है, जिससे अन्तमें ब्रह्मकी प्राप्ति बतायी है । अतः इस धर्मका त्याग करना वास्तवमें अपने कल्याणका त्याग करना है, परमात्मप्राप्तिका त्याग करना है !

आज हिन्दुओंने प्रायः शिखा (चोटी) रखनी छोड़ दी है । यह वास्तवमें कलियुगका प्रभाव है, जिससे सब जीव सुगमतासे नरकोंमें जायँ ! शिखा रखना मामूली काम दीखता है, पर यह मामूली काम नहीं है । पहले सब आदमी शिखा रखते थे, पर मेरे देखते-देखते आदमी शिखारहित हो गये ! मेरी आप लोगोंसे प्रार्थना है कि आप शिखा धारण करें । शिखाका त्याग न करें । ऐसे हिन्दुओंके सब चिह्न छूट जायँगे तो बड़ी दुर्दशा होगी !

मेरा विषय लौकिक नहीं है । एक व्याख्यान होता है, एक सत्संग होता है । मेरा विषय सत्संगका है, व्याख्यानका नहीं । सत्संगके विषयमें वे बातें हैं, जिनसे जीवका कल्याण हो जाय । इनके साथ-साथ मैं वे बातें भी कहता हूँ जो कल्याणमें सहायक हैं ।
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एक बड़े रहस्यकी सार बात है, जो मेरेको सन्तोंसे मिली है । वह बात शास्त्रकी पढ़ाई करनेपर भी मेरेको नहीं मिली । हमारे सन्तोंने एक जगह लिखा है कि मनुष्यके द्वारा कोई भी पाप हो जाय तो प्रायश्चित्त करना चाहिये । प्रायश्चित्तमें तीन बातें बतायीं‒पहली बात, मनमें यह बात होनी चाहिये कि मैंने पाप किया है । दूसरी बात, इस बातका दुःख होना चाहिये कि समझदार होकर, साधक होकर मैंने यह पाप किया ! तीसरी बात, ऐसी प्रतिज्ञा करे कि अब आगे मैं यह पाप कभी नहीं करूँगा ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे