।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण द्वितीयावि.सं.२०७३मंगलवार
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

जो वास्तवमें अपना धर्म नहीं है, संसारका धर्म है, उसको आदर देना और जो खास अपना धर्म है, उसकी उपेक्षा करना‒यह नरकोंमें जानेकी खास चीज है । इसका अर्थ यह हुआ कि दो चीजें हैं‒एक परमात्माका अंश (अविनाशी, चेतन) है और एक प्रकृतिका अंश नाशवान् जड़ है । परमात्माके अंशका धर्म न्यारा है और प्रकृतिके अंशका धर्म न्यारा है । अविनाशी तत्त्वको छोड़कर नाशवान्‌को ग्रहण करना परधर्म’ है‒‘परधर्मो भयावहः’ (गीता ३ । ३५)चेतनका धर्म स्वधर्म’ और प्रकृतिका धर्म परधर्म’ है । परमात्माकी तरफ चलना स्वधर्म’ है और संसारकी तरफ चलना परधर्म’ है । मनुष्यने संसारके धर्मको तो अपना मान लिया, पर अपने धर्मको भूल गया‒यह मूल भूल हुई है ।

आपका कल्याण शरीर आदिसे नहीं होगा, प्रत्युत स्वयंसे होगा । शरीर-संसार निरन्तर हमसे बिछुड़ रहे हैं । वे कभी अपने साथ रहते नहीं, रह सकते नहीं; परन्तु परमात्मा कभी हमसे अलग होते नहीं, हो सकते नहीं । सर्वसमर्थ परमात्मा भी चाहें कि मैं किसीसे अलग हो जाऊँ तो अलग नहीं हो सकते ! आप उस परमात्माके अंश हैं । मूल भूल यह है कि जो अपना नहीं है, उस (शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि) को अपना मान लिया और जो अपना है, उस परमात्माको अपना नहीं माना । इस एक भूलमें सब भूल है । गणितमें एक अंककी भी भूल हो जाय तो सब-का-सब रद्दी हो जाता है, एक भी नम्बर नहीं मिलता । इसलिये कम-से-कम आप इतना मान लें कि हम परमात्माके हैं और परमात्मा हमारे हैं’
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संसारमें अपनी चीज कोई है ही नहीं । इसलिये कोई भी कामना करना बेईमानी है । जो केवल कामनाकी पूर्तिके लिये ही भगवान्‌का भजन करता है, उसका कल्याण नहीं होता; क्योंकि उसने भगवान्‌को भगवान् समझा ही नहीं । उसका इष्ट काम्य पदार्थ है, भगवान् नहीं । उसके लिये भगवान् नोट छापनेकी मशीनकी तरह केवल कामनापूर्तिका ही एक माध्यम हैं । परन्तु भगवान्‌के अर्थार्थी और आर्त भक्त उनसे अलग हैं । वे कुछ भी चाहते हैं तो भगवान्‌से ही चाहते हैं । दूसरा कोई देना चाहे तो वे लेंगे नहीं । उनमें कामना मुख्य नहीं है, प्रत्युत भगवान्‌का भजन मुख्य है‒‘चतुर्विधा भजन्ते माम्’ (गीता ७ । १६) । वे अपना सम्बन्ध भगवान्‌से मानते हैं । उनका इष्ट भगवान् हैं, धन नहीं । वे धन चाहते हैं अथवा दुःख दूर करना चाहते हैं‒इतनी उनमें कमी है । गोस्वामीजी महाराज कहते हैं‒

जग जाचिअ कोउ न, जाचिअ जौ जियँ जाचिअ जानकी जानहि रे ।
जेहि जाचत जाचकत जरि जाइ,       जो जारति जोर जहानहि रे ॥
                                                                            (कवितावली ७ । २८)


संसारमें किसीसे कुछ माँगना नहीं चाहिये । यदि माँगना ही हो तो जानकीनाथ (भगवान् श्रीराम) से मनमें ही माँगो, जिनसे माँगते ही याचकता (कामना, दरिद्रता) जल जाती है, जो बरबस जगत्‌को जला रही है ।’

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे