(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान् हमारे खास माता-पिता हैं । ऐसे माता-पिता आपको मिलेंगे
नहीं । ऐसे माता-पिता दूसरे हैं ही नहीं, फिर मिलेंगे कैसे ?
भगवान् कहते हैं‒‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः’ (गीता
९ । १७) ‘इस सम्पूर्ण जगत्का पिता, धाता, माता और पितामह भी मैं ही हूँ ।’
आश्चर्यकी बात है कि आपके मनमें अपने माता-पितासे मिलनेकी नहीं
आती ! माता-पितापर बालकका स्वतः-स्वाभाविक हक लगता है । जीवमात्र भगवान्का पुत्र है
। कपूत-से-कपूत हो, तो भी वह पूत तो है ही ! चिन्ता माता-पिता करते हैं,
बालक नहीं । बालक तो मौज करता है । इसलिये अपनेपर कोई भार मत
लो । सब भार भगवान्पर सौंप दो । हर समय याद रखो कि हम भगवान्के हैं । आप दूसरेका
चेला बन जाते हो तो क्या भगवान्का होना उससे कम है ?
दूसरेका होनेमें धोखा भी हो सकता है; क्योंकि
दूसरेका कुछ पता नहीं कि वह कैसा है । पर आप भगवान्के हो जाओ तो धोखा नहीं होगा । भगवान्के तो हम सदासे हैं,
केवल उधर हमने ध्यान नहीं दिया ।
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प्रेमकी प्राप्तिके लिये मैंने बहुत-सी बातें सुनी हैं,
पर सबसे श्रेष्ठ बात यह सुनी है कि
अपनेपनसे प्रेम होता है । सब बालकोंको माँ इसलिये अच्छी लगती है कि वह ‘मेरी माँ’ है । माँ कुरूप हो,
उसके पास अच्छे कपड़े-गहने भी नहीं हों,
तो भी वह अच्छी लगती है । ऐसे ही हमें अपने परमपिता परमात्मा
प्यारे लगने चाहिये । यह हमारी गलती है कि हमारे पिता तो
परमात्मा हैं, पर अच्छा लगता है संसार ! नित्य रहनेवाले अविनाशी परमात्मा अच्छे न लगें,
पर नित्य बदलनेवाला नाशवान् संसार अच्छा लगे‒यह हमारी बहुत बड़ी
गलती है । इसका सुधार करना चाहिये । हमारेसे सुधार न हो तो भगवान्से कहना चाहिये ।
संसार इसलिये अच्छा लगता है कि संसारकी चीजोंको हमने अपना मान
लिया । संसारकी कोई भी चीज हमारे साथ नहीं रहती‒यह हम जानते हैं,
पर इस जानकारीका हम आदर नहीं करते । शरीर संसारका अंश होनेके
कारण संसारमें स्थित है, पर हम परमात्माके अंश होते हुए भी संसारमें स्थित हो जाते हैं
! यह हमारी बड़ी गलती है । इसलिये इसको सुधारनेकी जिम्मेवारी हमारेपर आ गयी । अगर हम
परमात्मासे विमुख नहीं होते तो उनके सम्मुख होनेकी जिम्मेवारी हमारेपर नहीं आती और
हम मौजसे रहते !
हम भगवान्के अंश हैं,
भगवान् हमारे हैं‒यह बात सत्संगके द्वारा मालूम होती है । भगवान्
हमारे हैं‒यह समझमें नहीं आये तो भी स्वीकार कर लें । भगवान् पहले समझमें नहीं आते;
क्योंकि हमारी समझ छोटी है,
भगवान् बहुत बड़े हैं;
इसलिये वे हमारी समझके अन्तर्गत नहीं आते । परन्तु संसार कितना
ही बड़ा हो, वह हमारे सामने तुच्छ है । इसलिये भगवान् माननेका विषय है,
संसार जाननेका विषय है । अपने माता-पिताको हम मान ही सकते हैं,
जान नहीं सकते । भगवान् हमारे हैं‒इसको मान लें,
और संसार हमारा नहीं है‒इसको जान लें । यदि संसारको जान लें तो भगवान्को माननेकी शक्ति आ जायगी, और
भगवान्को मान लें तो संसारको जाननेकी शक्ति आ जायगी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे |