।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि
चैत्र कृष्ण सप्तमी, वि.सं.२०७३, रविवार
बिन्दुमें सिन्धु



(गत ब्लॉगसे आगेका)

अपना एक ही इष्ट और एक ही मन्त्र रखना चाहिये । दूसरे मन्त्रकी महिमा सुनकर अपने मन्त्रको मत बदलो । कोई कुछ भी कहे, लोभमें मत पड़ो । भगवान्‌के जिस नाममें आपकी श्रद्धा हो, जो नाम आपको प्यारा लगे, उसीको जपनेसे आपको लाभ होगा । भगवान्‌के किसी भी नाममें कम शक्ति नहीं है । सब नाम कल्याण करनेवाले हैं ।

श्रोता‒भजन करते समय संसारकी बातें बहुत याद आती हैं । ऐसे समयमें क्या करना चाहिये ?

स्वामीजी‒‘हे नाथ ! हे नाथ !’ करना चाहिये । आर्त होकर हे नाथ ! हे नाथ !’ पुकारो । भगवान्‌की कृपासे ठीक होगा, यह विश्वास रखो । कोई भी आफत हो तो भगवान्‌को पुकारो । भगवान्‌के सिवाय कोई अपना नहीं है ।

आप सच्चे हृदयसे भजनमें लग जाओ । आपको कोई बाधा नहीं लगेगी । सब काम ठीक होगा । कोई काम बिगड़ेगा नहीं; जैसे‒आपके घरमें विवाह होता है तो काम-धंधा भी चलता रहता है, बन्द नहीं होता । भजन बाधक नहीं होगा, प्रत्युत सहायक होगा । भगवान्‌को याद रखनेसे बुद्धि शुद्ध, निर्मल होती है । परीक्षाके दिनोंमें विद्यार्थियोंने रामचरितमानसका नवाह पाठ करते हुए परीक्षा दी और पास हो गये‒ऐसा मैंने देखा है !

संसारका काम तो एक दिन बिगड़ेगा ही । इसको आजतक कोई सुधार नहीं सका । भगवान्‌में लग जाओ तो कोई नुकसान नहीं होगा । एक किसान था । उसके घर सन्त आ गये तो उन्होंने कहा कि तुम माला फेरो । किसानने माला फेरी तो उसकी भैंस मर गयी । दूसरे सन्त आये तो उन्होंने भी कहा कि तू भजन कर । किसान बोला कि महाराज, आप भजनकी बात करते हैं, मैं जो एक माला फेरता हूँ, उसको भी छोड़नेका मन करता है; क्योंकि मेरी एक भैंस मर गयी । सन्त बोले कि माला छोड़ेगा तो सभी भैंसें मर जायँगी ! भगवान्‌में लगनेसे एक भैंस मर गयी, नेगचार पूरा हो गया ! अब और नहीं मरेगी । भगवान्‌का नाम जहर थोड़े ही है कि उससे भैंस मर जाय !

तुलसी सीताराम कहु दृढ़ राखहु बिस्वास ।
कबहूँ  बिगरे  ना सुने  रामचन्द्र  के  दास ॥
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श्रोता‒मैं भगवान्‌की हूँ और भगवान् मेरे हैं‒यह मैं रोज भगवान्‌से प्रार्थना करती हूँ । पर यह बात मनमें कब पक्की होगी कि मैं भगवान्‌की हो गयी और भगवान् मेरे हो गये ?

स्वामीजी‒यह बात वास्तवमें भीतरसे माननेकी है, कहनेकी या रटनेकी नहीं है । तुम एक ही रातमें ससुरालकी कैसे हो जाती हो ? माँ बाप, भाई, बहन, भौजाई आदि किसीने भी बीनणीं’ नामसे नहीं कहा, पर ससुरालमें बीनणीं’ नामसे पुकारते ही नींदसे उठ जाती हो ! इस मान्यताको बदलनेमें कितने दिन लगे ? क्या मैं बीनणीं हूँ’ इसको रटना पड़ा ? ऐसे ही कोई साधु हो जाता है अथवा दूसरेकी गोद चला जाता है तो उसकी मान्यता बदल जाती है । अतः कुछ करनेकी जरूरत नहीं है, केवल भीतरसे माननेकी, स्वीकार करनेकी जरूरत है । स्वीकृति एक ही बार तत्काल होती है, और जबतक खुद मिटायें नहीं, मिटती नहीं ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘बिन्दुमें सिन्धु’ पुस्तकसे